Book Title: Nyaya Kumudchandra ka Prakkathana
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 5
________________ . न्यायकुमुदचन्द्र' ४६७ अगर प्रस्तुत भाग के अभ्यासी उक्त दोनों दृष्टियों से टिप्पणियों का उपयोग करेंगे तो वे टिप्पणियाँ सभी दिगम्बर-श्वेताम्बर न्याय-प्रमाण ग्रन्थों के वास्ते एक “सी कार्य साधक सिद्ध होंगी। इतना ही नहीं, बल्कि बौद्ध ब्राह्मण परम्परा के दार्शनिक साहित्य की अनेक ऐतिहासिक गुत्थियों को सुलझाने में भी काम देंगी। ... उदाहरणार्थ- 'धर्म' पर की टिप्पणियों को लीजिए । इससे यह विदित हो जाएगा कि ग्रंथकार ने जो जैन सम्मत धर्म के विविध स्वरूप बतलाये हैं उन सबके मूल आधार क्या-क्या हैं। इसके साथ-साथ यह भी मालूम पड़ जाएगा कि ग्रन्थकार ने धर्म के स्वरूप विषयक जिन अनेक मतान्तरों का निर्देश व खण्डन किया है वे हरएक मतान्तर किस-किस परम्परा के हैं और वे उस परम्परा के किनकिन ग्रन्थों में किस तरह प्रतिपादित हैं। यह सारी जानकारी एक संशोधक को भारतवर्षीय धर्म विषयक मन्तव्यों का आनखशिख इतिहास लिखने तथा उनकी पारस्परिक तुलना करने की महत्त्वपूर्ण प्रेरणा कर सकती है। यही बात अनेक छोटे-छोटे टिप्पणों के विषय में कही जा सकती है। प्रस्तुत संस्करण से दिगम्बरीय साहित्य में नव प्रकाशन का जो मार्ग खुला होता है, वह आगे के साहित्य प्रकाशन में पथ-प्रदर्शक भी हो सकता है। राज.. वार्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, अष्टसहस्री श्रादि अनेक उत्कृष्टतर ग्रन्थों का जो अपकृष्टतर प्रकाशन हुअा है उसके स्थान में भागे कैसा होना चाहिए, इसका यह नमूना है जो माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला में दिगम्बर पंडितों के द्वारा ही तैयार होकर प्रसिद्ध हो रहा है। ऐसे टिप्पणीपूर्ण ग्रन्थों के समुचित अध्ययन अध्यापन के साथ ही अनेक इष्ट परिवर्तन शुरू होंगे । अनेक विद्यार्थी व पंडित विविध साहित्य के परिचय के द्वारा सर्वसंग्राही पुस्तकालय निर्माण की प्रेरणा पा सकेंगे, अनेक विषयों के, अनेक ग्रन्थों को देखने की रुचि पैदा कर सकेंगे । अंत में महत्त्वपूर्ण प्राचीन ग्रन्थों के असाधारण योग्यतावाले अनुवादों की कमी भी उसी प्रेरणा से दूर होगी। संक्षेप में यों कहना चाहिए कि दिगम्बरीय साहित्य की विशिष्ट और महती अान्तरिक विभूति सर्वोपादेय बनाने का युग शुरू होगा। . टिप्पणियाँ और उन्हें जमाने का क्रम ठीक है फिर भी कहीं-कहीं ऐसी बात श्रा गई है जो तटस्थ विद्वानों को अखर सकती है। उदाहरणार्थ--'प्रमाण' पर के अवतरण संग्रह को लीजिए इसके शुरू में लिख तो यह दिया गया है कि कम-विकसित प्रमाण-लक्षण इस प्रकार हैं। पर फिर उन प्रमाण-लक्षणों का क्रम, जमाते समय क्रमविकास और ऐतिहासिकता भुला दी गई है । तटस्थ विचारक को ऐसा देखकर यह कल्पना हो जाने का संभव है कि जब अवतरणों का संग्रह . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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