Book Title: Nyaya Kumudchandra ka Prakkathana Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 3
________________ " ३० 'न्याय कुमुदचन्द्र' ४६५ उपासना को देखता हूँ और दूसरी तरफ दिगम्बरीय साहित्य क्षेत्र का विचार करता हूँ तब कम से कम मुझको तो कोई संदेह ही नहीं रहता कि यह सब कुछ बदली हुई संकुचित या एकदेशीय मनोवृत्ति का ही परिणाम है । मेरा यह भी चिरकाल से मनोरथ रहा है कि हो सके इतनी त्वरा से दिगम्बर परम्परा की यह मनोवृत्ति बदल जानी चाहिए । इसके बिना वह न तो अपना ऐतिहासिक व साहित्यिक पुराना अनुपम स्थान सँभाल लेगी और न वर्तमान युग में सबके साथ बराबरी का स्थान पा सकेगी। यह भी मेरा विश्वास है कि अगर यह मनोवृत्ति बदल जाए तो उस मध्यकालीन थोडे, पर असाधारण महत्त्व के, ऐसे ग्रन्थ उसे विरासत में लभ्य हैं जिनके बल पर और जिनकी भूमिका के ऊपर उत्तरकालीन और वर्तमानयुगीन सारा मानसिक विकास इस वक्त भी बड़ी खूबी से समन्वित व संग्रहीत किया जा सकता है । इसी विश्वास ने मुझको दिगम्बरीय साहित्य के उपादेय उत्कर्ष के वास्ते कर्तव्य रूप से मुख्यतया तीन बातों की ओर विचार करने को बाधित किया है। (१) समंतभद्र, कलंक विद्यानंद आदि के ग्रन्थ इस ढंग से प्रकाशित किये जाएँ जिससे उन्हें पढ़नेवाले व्यापक दृष्टि पा सकें और जिनका अवलोकन तथा संग्रह दूसरी परंपरा के विद्वानों के वास्ते अनिवार्य सा हो जाए । (२) आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन अष्टशती, न्यायविनिश्चय यदि ग्रन्थों के अनुवाद ऐसी मौलिकता के साथ तुलनात्मक व ऐतिहासिक पद्धति से किये जाएँ, जिससे यह विदित हो कि उन ग्रन्थकारों ने अपने समय तक की कितनी विद्याओं का परिशीलन किया था और किन-किन उपादानों के आधार पर उन्होंने अपनी कृतियाँ रवीं थीं- तथा उनकी कृतियों में सन्निष्ट विचार परंपराओं का आज तक कितना और किस तरह विकास हुआ है । (३) उक्त दोनों बातों की पूर्ति का एकमात्र साधन जो सर्व संग्राही पुस्तकालयों का निर्माण, प्राचीन भाण्डारों की पूर्ण व व्यवस्थित खोज तथा आधुनिक पठनप्रणाली में आमूल परिवर्तन है, वह जल्दी से जल्दी करना । किसी समय आसमीमांसा का । मैंने यह पहले ही सोच रखा था कि अपनी ओर से बिना कुछ किये औरों को कहने का कोई विशेष अर्थ नहीं । इस दृष्टि से अनुवाद मैंने प्रारम्भ भी किया, जो पीछे रह गया इस बीच में सन्मतितर्क के सम्पादन काल में कुछ पूर्व दिगम्बरीय ग्रन्थ रत्न मिले, जिनमें से सिद्धिविनिश्वय टीका एक है । न्यायकुमुदचन्द्र की लिखित प्रति जो 'श्री' संकेत से प्रस्तुत संस्का में उपयुक्त हुई है वह भी श्रीयुत प्रेमीजी के द्वारा मिली । जब मैंने उसे देखा तभी उसका विशिष्ट संस्करण निकालने की वृत्ति बलवती हो गई। उधर Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.orgPage Navigation
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