Book Title: Niyati ka Swarup
Author(s): Kanhiyalal Sahal
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 6
________________ -0-0-0-0-0--0-0-0-0-0 ४२० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय से भोग करने वाले को तुम क्यों मारते हो जब कि तुम्हारे मत से होनहार होकर ही रहता है तथा उत्थान, बल, वीर्य, पराक्रम आदि सब व्यर्थ हैं." श्रमण भगवान् के उक्त शब्द सुन कर सद्दालपुत्र से कुछ उत्तर देते न बना और उसने प्रतिबोध पाया. इसी प्रसंग में 'उपासकदशांग सूत्र' के ६ठे अध्ययन में उपलब्ध कुंडकोलिक और देव का विवाद भी उद्धरणीय है. देव ने कहा, उत्थान कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार तथा पराक्रम व्यर्थ है क्योंकि अनेक बार उत्थानादि करने पर भी कार्य सिद्धि नहीं होती. कहा भी है प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभाशुभो वा, भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्तिनाशः। न हि भवति यन्न भाव्यं भवति च भाव्यं विनाऽपि यत्नेन, करतलगतमपि नश्यति यस्य तु भवितव्यता नास्ति । -उवासग-दसाग्रो, ६-१६५ अर्थात् नियति के बल पर जो कुछ भी शुभ अथवा अशुभ होने वाला है, वह होकर ही रहेगा. प्राणी चाहे कितना भी बड़ा प्रयत्न क्यों न करे, जो कुछ नहीं होने वाला होगा, नहीं होगा, और इसी प्रकार, जो होने वाला होगा, उसका नाश भी नहीं हो सकेगा. जो भवितव्य नहीं है, नहीं होगा और जो भवितव्य है, वह बिना प्रयत्न के भी होगा किन्तु जिस व्यक्ति के लिये उसकी भवितव्यता नहीं, उसकी हथेली में आकर भी वह नष्ट हो जायगा. यह सुन कर कुण्डकोलिक श्रमणोपासक ने देव से पूछा : “तुमने इस प्रकार की दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देव-प्रभाव किस प्रकार प्राप्त किये ? उत्थानादिक से प्राप्त किये अथवा अनुत्थानादिक से ?" इस पर देव ने उत्तर दिया : "मुझे इस प्रकार की देवऋद्धि आदि विना उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार पराक्रम किये प्राप्त हुई है." यह सुन कर कुंडकोलिक ने कहा : “यदि यही बात है तो जो जीव उत्थान आदि नहीं करते, वे भी तेरे जैसी दिव्य देव-ऋद्धि क्यों नहीं प्राप्त कर लेते? वस्तुत: तू ने उत्थानादि से ही देव-ऋद्धि प्राप्त की है और तेरा कथन मिथ्या है." उक्त वचन सुन कर देव शंकित हो गया है कि गोशाल का मत सत्य है या श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामी का मत सत्य है. नियतिवाद और पुरुषार्थवाद का विषय चिरकाल से ही दार्शनिक क्षेत्र में वादविवाद का विषय रहा है. श्री गुणरत्नसूरिकृत 'षड्दर्शन समुच्चयटीका' की प्रस्तावना में नियति के स्वरूप की विवेचना करते हुए कहा गया है ते (नियतिवादिनः) हूयेवमाहुनियति म तत्त्वान्तरमस्ति यदशादेते भावाः सर्वेऽपि नियतेनैव रूपेण प्रादुर्भावमश्नुवते, नान्यथा. तथाहि यद् यदा यतो भवति तत्तदा तत एव नियतेनैव रूपेण भवदुपलभ्यते, अन्यथा कार्यकारणव्यवस्था प्रतिनियतरूप व्यवस्था च न भवेत् नियामकाभावात्. तत एवं कार्यनयत्यतः प्रतीयमानामेनां नियति को नाम प्रमाणपथकुशलो बाधितुं क्षमते ? मा प्रापद् (अन्यथा) अन्यत्रापि प्रमाणपथव्याघातप्रसंग:. तथा चोक्तम् नियतेनैव रूपेण सर्वे भावा भवन्ति यत्, ततो नियतिजा येते, तत्स्वरूपानुबेधतः । यद्यदैव यतो यावत्तत्तदैव ततस्तथा, नियतं जायते नान्यात् क एनां बाधितुं क्षमः । उक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि नियतिवादी नियति को कार्यकारण की नियामिका शक्ति के रूप में ग्रहण करते हैं यदि नियति न हो तो कार्यकारण की व्यवस्था ही भंग हो जाय. 992 Jain Ede www.inclibrary.org

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