Book Title: Niyati ka Swarup Author(s): Kanhiyalal Sahal Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 1
________________ डा० कन्हैयालाल सहल अध्यक्ष हिन्दी विभाग, बिड़ला आर्टस कॉलेज, पिलानी नियति का स्वरूप काव्यप्रकाशकार ने कवि-भारती का जयजयकार करते हुए 'नियतिकृतनियमरहिता' का प्रयोग किया है जिससे स्पष्ट है कि वे नियति' को नियम-समष्टि अथवा नियमन करने वाली शक्ति के रूप में ग्रहण करते हैं. 'नियति' शब्द का इस तरह का प्रयोग वैदिक 'ऋत' से बहुत-कुछ मिलता-जुलता है जहाँ ऋत के कारण ही संसार में नियम-चक्र चलता है तथा ब्रह्माण्ड में व्यवस्था दृष्टिगोचर होती है.२ ।। वैज्ञानिक अध्ययन और प्रयोगों के परिणामस्वरूप अब यह तथ्य अधिकाधिक स्पष्ट होता जा रहा है कि यह विश्व कुछ ऐसे नियमों द्वारा संचालित है जो अकाट्य और अनुल्लंघनीय है. इस विचारधारा के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति विश्वश्रृंखला की एक कड़ी मात्र है. संस्कृत के अनेक प्राचीन ग्रंथों में नियति के स्वरूप की विवेचना की गई है. उदाहरणार्थ योगवासिष्ठ के निम्नलिखित श्लोकों को लीजिए यथास्थितं ब्रह्मतत्त्वं सत्ता नियतिरुच्यते । सा विनेतुर्विनेयत्वं सा विनेयविनेयता। -प्रकरण २, सर्ग १० श्लोक १. श्रादिसर्गे हि नियतिर्भाववैचित्र्यमक्षयम् । अनेनेत्थं सदा भाव्यमिति संपद्यते परम् । -प्रकरण ३, सर्ग ६२, श्लोक ६. महासत्तेति कथिता महाचितिरित स्मृता। महाशक्तिरिति ख्याता महादृष्टिरिति स्थिता ।१०। महाक्रियेति गदिता महोद्भव इति स्मृता ।। महास्पन्द इति प्रौढा महात्मैकतयोदिता ॥११॥ तृणानीव जगत्येवमिति दैत्याः सुरा इति । इति नागा इति नगा इत्याकल्पं कृता स्थितिः ।१२। अर्थात् सर्वत्र सम रूप से स्थित जो व्यापक ब्रह्म की सत्ता है, उसी का नाम नियति है, वही कार्य-कारण के नियम्य और नियामक रूप से स्थित है. कारण होने पर कार्य अवश्य होता है और कार्य होने पर उसका कोई कारण अवश्य होता है. इसी नियम का नाम नियति है. वही कारण आदि की नियामकता है और वही कार्य आदि की नियम्यता भी है. सृष्टि के प्रारम्भ से ही अग्नि आदि की उष्णता और ऊर्ध्वज्वलन नियति के कारण हैं, पर ब्रह्म स्वयं अपने संकल्प से पदार्थों की विचित्रतासहित अक्षय नियति का रूप धारण कर लेती है. वही नियति संपूर्ण ब्रह्माण्डों की स्थिति, विस्तार, १. नियम्यन्ते धर्मा अनया इति नियतिः। 2. There is no error in the Eternal plan, All kings are working for the final good of man. -Wordsworth 777 amvarerarersmaroseronly merimeniorary.orgPage Navigation
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