Book Title: Nivruttikul ka Sankshipta Itihas
Author(s): Shivprasad
Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf

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Page 2
________________ ३५ Vol. 11-1996 निवृत्तिकुल का संक्षिप्त इतिहास रचयिता सिद्धर्षि भी निवृत्तिकुल के थे । उपमितिभवप्रपंचकथा की प्रशस्ति में उन्होंने अपनी गुरु-परम्परा इस प्रकार दी है: सूर्याचार्य देल्लमहत्तर दुर्गस्वामी सिद्धर्षि उक्त प्रशस्ति में सिद्धर्षि ने अपने गुरु और स्वयं को दीक्षित करने वाले आचार्यरूपेण गर्षि का नाम भी दिया है। संभवत: यह गर्गर्षि और कर्मसिद्धान्त के ग्रन्थ कर्मविपाक के रचयिता गर्गर्षि एक ही व्यक्ति रहे हों । इसके अलावा पंचसंग्रह के रचयिता पार्श्वर्षि के शिष्य चन्द्रर्षि" भी नामाभिधान के प्रकार को देखते हुए संभवत: इसी कुल के रहे होंगे। अकोटा की वि. सं. की १०वीं शती की तीन धातु प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों में प्रतिमा-प्रतिष्ठापक के रूप में निवृत्तिकुल के द्रोणाचार्य का उल्लेख मिलता है। इनमें से एक प्रतिमा पर प्रतिष्ठा वर्ष वि. सं. १००६ / ई. स. ९५० दिया गया है । इस प्रकार इनका कार्यकाल १०वीं शताब्दी का उत्तरार्ध रहा होगा। __ निवृत्तिकुल में द्रोणाचार्य नाम के एक अन्य आचार्य भी हो चुके हैं। प्रभावकचरित के अनुसार ये चौलुक्यनरेश भीमदेव 'प्रथम' के संसारपक्षीय मामा थे । आचार्य हेमचन्द्र के द्वयाश्रयमहाकाव्य के अनुसार चौलुक्यराज भीमदेव के पिता नागराज नडूल के चाहमानराज महेन्द्र की भगिनी लक्ष्मी से विवाहित हुए थे। इसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उक्त द्रोणाचार्य नडूल के राजवंश से सम्बद्ध रहे होंगे। इनकी एकमात्र कृति है ओघनियुक्ति की वृत्ति । नवागवृत्तिकार अभयदेवसूरि द्वारा नौ अंगों पर लिखी गयी टीकाओं का इन्होंने संशोधन भी किया । इनके इस उपकार का अभयदेवसूरि ने सादर उल्लेख किया है। परन्तु इनके गुरु कौन थे, इस सम्बन्ध में न तो स्वयं इन्होंने कुछ बतलाया है और न किन्हीं साक्ष्यों से इस सम्बन्ध में कोई सूचना प्राप्त होती है। द्रोणाचार्य के शिष्य और संसारपक्षीय भतीजा सूराचार्य भी अपने समय के उद्भट विद्वान थे२° । परमारनरेश भोज (वि० सं० १०६६-११११) ने अपनी राजसभा में इनका सम्मान किया था। इनके द्वारा रचित दानादिप्रकरण नामक एक ग्रन्थ उपलब्ध है। वह संस्कृत भाषा के उच्च कोटि के विद्वान् थे। निवृत्तिकुल से सम्बद्ध तीन अभिलेख विक्रम संवत् की ११वीं शती के हैं। इनमें से प्रथम लेख वि. सं. १०२२ / ई. स. ९६६ का है जो भाषा की दृष्टि से कुछ हद तक भ्रष्ट है और धातु की एक चौबीसी प्रतिमा पर उत्कीर्ण है। श्री अगरचन्द नाहटा ने इस लेख की वाचना इस प्रकार दी है: गच्छे श्रीनृर्वितके तते संताने पारस्वदत्तसूरीणांवृसभ पुत्र्या सरस्वत्याचतुर्विंशति पटकं मुक्त्यथ चकारे॥ प्राप्तिस्थान-चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय, बीकानेर। द्वितीय लेख आबू के परमार राजा कृष्णराज के समय का वि. सं. १०२४ / ई. स. ९६८ का है, जो आबू के समीप केर नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। यह लेख यहां स्थित जिनालय के गूढ़मंडप के बांयी ओर स्तम्भ पर Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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