Book Title: Niti ke Manavatavadi Siddhant aur Jain Achar Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 4
________________ २८४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ से निवृत्ति और संयम में प्रवृति है। १३ इस प्रकार हम देखते हैं कि समकालीन मानवतावादी विचारकों के उपरोक्त तीनों सिद्धान्त बबिट का यह दृष्टिकोण जैन दर्शन के अति निकट है। उसका यह यद्यपि भारतीय चिन्तन में स्वीकृत रहे हैं तथापि भारतीय विचारकों कहना कि वर्तमान युग में संकट का कारण संयमात्मक मूल्यों का की यह विशेषता रही है कि उन्होंने इन तीनों को समवेत रूप में ह्रास है, जैन दर्शन को स्वीकार है। वस्तुत: आत्मसंयम और अनुशासन स्वीकार किया है। जैन दर्शन में सम्यक ज्ञान, दर्शन और चारित्र के आज के युग की सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है, जिसे इन्कार नहीं ___ रूप में, बौद्ध दर्शन में शील, समाधि और प्रज्ञा के रूप में तथा गीता किया जा सकता। में श्रद्धा, ज्ञान और कर्म के रूप में प्रकारान्तर से इन्हें स्वीकार किया न केवल जैन दर्शन में वरन् बौद्ध और वैदिक दर्शन में भी गया है। फिर भी गीता की श्रद्धा को आत्मचेतनता नहीं कहा जा सकता संयम और अनुशासन के प्रत्यय को आवश्यक माना गया है। भारतीय है। बौद्ध दर्शन के इस त्रिविध साधना-पथ में समाधि आत्मसनता नैतिक चिन्तन में संयम का प्रत्यय एक ऐसा प्रत्यय है जो सभी का, प्रज्ञा विवेक का और शील संयम का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसी आचार-दर्शनों में और सभी कालों में स्वीकृत रहा है। संयमात्मक जीवन प्रकार जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन आत्मचेतनता का, सम्यग्ज्ञान विवेक भारतीय संस्कृति की विशेषता रहा है। बबिट का यह विचार भारतीय का और सम्यक्चरित्र संयम का प्रतिनिधित्व करते हैं। चिन्तन के लिए कोई नया नहीं है। सन्दर्भ: १. देखिये - (अ) समकालीन दार्शनिक चिन्तन, डॉ० हृदयनारायण मिश्र, पृ० ३००-३२५। (ब) कन्टेम्पररि एथिकल थ्योरीज़, पृ० १७७-१८८। (अ) माणुस्सं सुदुल्लहं। - उत्तराध्ययनसूत्र। (ब) भवेषु मानुष्यभव: प्रधानम् । - अमितगति। (स) किच्चे मणुस्स पटिलाभो। – धम्मपद, १८२। (द) गुह्यं तदिदं ब्रवीमि। न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित् । - महाभारत, शान्तिपर्व, २९९/२०। ४. आचाराङ्ग, ११/३। ५. सूत्रकृताङ्ग, १/८/३। धम्मपद, २/११ ७. सौन्दरनन्द, १४/४३-४५। ८. गीता, २/६३। देखिये - (अ) कण्टेम्पररि एथिकल थ्योरीज़, पृ० १८१-१८४। (ब) विज़डम ऑफ कण्डक्ट - सी०बी०गनेंट। १०. दशवैकालिक, ४/८।। ११. बबिट के दृष्टिकोण के लिए देखिये - (अ) कण्टेम्पररि एथिकल थ्योरीज़, पृ० १८५-१८६। (ब) दि ब्रेकडाउन ऑफ इण्टरनेशनलिज्म। - प्रकाशित 'दि नेशन' खण्ड स (८) १९१५। १२. दशवैकालिक, १/१॥ १३. उत्तराध्ययन, ३१/२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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