Book Title: Niti ke Manavatavadi Siddhant aur Jain Achar Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीति के मानवतावादी सिद्धान्त और जैन आचार दर्शन - 'मानवतावाद' सामान्य रूप से स्वाभाविक इच्छाओं का सर्वथा दमन उचित नहीं मानता, वरन् उनका संयमन आवश्यक मानता है। वह संयम का पक्षधर है, दमन का नहीं उसके अनुसार सच्चा नैतिक जीवन इच्छाओं के दमन में नहीं, अपितु उसके नियमन या नियन्त्रण में है। मानवतावाद में नैतिकता का प्रत्यय सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, यही कारण है कि मानवतावाद को आचारशास्त्रीय धर्म कहा जाता है। मानवतावादी सिद्वान्त नैतिकता को मानव की सांस्कृतिक चेतना के विकास में देखते हैं सांस्कृतिक चेतना का विकास ही नैतिकता का आधार है। सांस्कृतिक विकास एवं नैतिक जीवन मानवीय गुणों के विकास में हैं। मानवतावादी चिन्तन में मनुष्य ही नैतिक मूल्यों का मापदण्ड है और मानवीय गुणों का विकास ही नैतिकता है मानवतावादी विचारकों की एक लम्बी परम्परा है। प्लेटो और अरस्तू से लेकर लेमान्ट, जाकमारिता तथा समकालीन विचारकों में रसल, वारनर फिटे, सी०बी० गर्नेट और इस्राइल लेविन प्रभृति विचारक इस परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं। यद्यपि उपरोक्त सभी विचारक मानवीय गुणों के विकास के संदर्भ में ही नैतिकता के प्रत्यय को देखते हैं फिर भी प्राथमिक मानवीय गुण क्या है, इस सम्बन्ध में उनमें मतभेद है। समकालीन मानवतावादी विचारकों में इसी प्रश्न को लेकर प्रमुख रूप से तीन वर्ग है जिन्हें क्रमश: आत्मचेतनतावाद, विवेकवाद और आत्मसंयमवाद कहा जा सकता है। इन तीनों ही मान्यताओं का जैन दर्शन के साथ निकट सम्बन्ध देखा जा सकता है, लेकिन इसके पहले कि हम इनके साथ जैन दर्शन की तुलना करें, मानवतावाद की कुछ सामान्य प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में जैन दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है। सर्वप्रथम मानतावादी विचार - परम्परा सहानुभूति के प्रत्यय को ही नैतिकता का आधार बनाती है। मानवतावाद के अनुसार मनुष्य का परम प्राप्तव्य इसी जगत् में केन्द्रित हैं और इसीलिए वह अपने नैतिक दर्शन को किसी पारलौकिक सुख-कामना पर आधृत नहीं करता । उसके अनुसार नैतिक होने के लिए किसी पारलौकिक आदर्श या साध्य प्रति निष्ठा की आवश्यकता नहीं है, वरन् मनुष्य में निहित सहानुभूति के तत्त्व ही उसे नैतिकता के प्रति आस्थावान् बनाये रखने के लिए पर्याप्त है। वह नैतिकता को प्रलोभन और भय के आधार पर खड़ा नहीं कर, मानव में निहित सहानुभूति के तत्त्व पर खड़ा करता है। उसके अनुसार नैतिक होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि हम किसी पारलौकिक सत्ता (ईश्वर) अथवा कर्म के नियम जैसे किसी सिद्वान्त पर आस्था रखें। उसके अनुसार मानवीय प्रकृति में निहित सहानुभूति का तत्त्व ही नैतिक होने के लिए पर्याप्त है। यदि हम इस प्रश्न पर जैन दर्शन का दृष्टिकोण जानना चाहें तो जैन दर्शन भी प्राणी में निहित सहानुभूति के तत्व को स्वीकार करता है (परस्परोपग्रहो जीवानाम् – तत्त्वार्थ, ५ / २१) तथापि वह कर्मनियम पर भी अपनी आस्था प्रकट करके चलता है। इस सहानुभूति के तत्त्व के साथ-साथ कर्म सिद्धान्त को भी नैतिकता का आधार बनाता है। मानवतावाद सांसारिक हित साधन पर बल देता है और पारलौकिक सुख-कामना को व्यर्थ मानता है, यद्यपि वह मनुष्य को स्थूल सुखों तक सीमित नहीं रखता है, किन्तु कला, साहित्य, मैत्री और सामाजिक सम्पर्क के सूक्ष्म सुखों को भी स्थान देता है। लेमान्ट परम्परावादी और मानतावादी आचार दर्शन में निषेधात्मक और विधानात्मक दृष्टि से भेद स्पष्ट करता है। उसके अनुसार परम्परावादी नैतिक दर्शन में वर्तमान के प्रति उदासीनता और परलोक में सुख प्राप्त करने की जो इच्छा होती है, वह निषेधात्मक है। इसके विपरीत मानवतावाद इस जीवन के प्रति आस्था रखता है और उसे सुखी बनाना चाहता है, यह विधायक है। तुलनात्मक दृष्टि से इस प्रश्न पर विचार करते समय हम यह पाते हैं कि यद्यपि जैन दर्शन पारलौकिकता के प्रत्यय को स्वीकार करता है और भावी जीवन के अस्तित्व में आस्था भी रखता है, लेकिन इस आधार पर उसे निषेधात्मक नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि वह वर्तमान जीवन के प्रति उदासीनता नहीं रखता है जैन दार्शनिक स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि नैतिक साधना का पारलौकिक सुख की कामना से कोई सम्बन्ध नहीं है, वरन् पारलौकिक सुख-कामना के आधार पर किया गया नैतिक कर्म दूषित है। वे नैतिक-साधना को न ऐहिक सुखों के लिए और न पारलौकिक सुखों के लिए मानते हैं वरन् उनके अनुसार तो नैतिक साधना का एकमात्र साध्य आत्म-विकास या आत्मपूर्णता है । बुद्ध ने भी स्पष्ट रूप से यह बताया है कि नैतिक जीवन का साध्य पारलौकिक सुख की कामना नहीं है। गीता में भी फलाकांक्षा के रूप में पारलौकिक सुख की कामना को अनुचित ही कहा गया है। जैन विचारणा नैतिक जीवन के लिए अपनी दृष्टि वर्तमान पर ही केन्द्रित करती है और कहती है कि गत वस्तु सोचे नहीं आगत वांछा नाय । वर्तमान में वर्ते सही सो जानी जग माय । - आलोचना पाठ जो भूत के सम्बन्ध में कोई शोक नहीं करता और भविष्य के सम्बन्ध में जिसकी कोई अपेक्षाएँ नहीं हैं, जो मात्र वर्तमान में ही अपने जीवन को जीता है, वही सच्चा ज्ञानी है। विशुद्ध वर्तमान में जीवन जीना जैन परम्परा का नैतिक आदर्श रहा है। अतः वह वर्तमान के प्रति उदासीन नहीं है, फिर भी इस अर्थ में वह मानवतावादी विचारकों — . Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ के साथ भी है और वह परलोक के प्रत्यय से इन्कार नहीं करती। मानवतावादी विचारणा में प्राथमिक मानवीय गुण के प्रश्न को लेकर भगवान् बुद्ध ने भी अजातशत्रु को यही बताया था कि मेरे धर्म की प्रमुख रूप से तीन विचारधाराएँ प्रचलित हैं। जैन आचार-दर्शन के साधना का केन्द्र पारलौकिक जीवन नहीं, वरन् यही जीवन है। साथ इनका तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए हम इन तीनों पर मानवतावाद सामान्य रूप से स्वाभाविक इच्छाओं का सर्वथा दमन अलग-अलग विचार करेंगे। उचित नहीं मानता वरन् उसका संयमन आवश्यक मानता है। वह संयम का समर्थक है, दमन का नहीं। उसके अनुसार सच्चा नैतिक जीवन आत्मचेतनावादी दृष्टिकोण और जैनदर्शन इच्छाओं के दमन में नहीं वरन् उनके संयमन में है। मानवतावादी विचारकों में आत्मचेतनाता या आत्मजागृति को तुलनात्मक दृष्टि से यदि हम इस पर विचार करें तो यह पाते ही नैतिकता का आधार और प्राथमिक मानवीय गुण मानने वाले विकारकों हैं कि जैन, बौद्व और गीता के आचार-दर्शन भी दमन के प्रत्यय को में वारनरफिटे प्रमुख हैं। वारनरफिटे नैतिकता को आत्मचेतनका का स्वीकार नहीं करते हैं। उनमें भी इच्छाओं का दमन अनुचित माना सहगामी मानते हैं। उनकी दृष्टि में नैतिकता का परिभाषक उस समग्र गया है। जैन दर्शन में क्षायिक एवं औपशमिक साधना की दो श्रेणियाँ सामाजिक प्रक्रिया में नहीं है, जिसमें मनुष्य जीवन जीता है, वरन् मानी गयी हैं। इनमें भी केवल क्षायिक श्रेणी का साधक ही आत्म- आत्मचेतना की उस मानवीय प्रक्रिया में है, जो व्यक्ति के जीवन में पूर्णता को प्राप्त कर सकता है; उपशम श्रेणी का साधक तो साधना रही हुई है। वस्तुतः नैतिकता आत्मचेतन जीवन जीने में है। उनका की ऊँचाई पर पहुँचकर भी पतित हो जाता है। इस प्रकार वह भी कथन है कि जीवन के समग्र मूल्य जीवन की चेतना में निहित हैं। दमन को अस्वीकार करता है और केवल संयम को स्थान देता है। यही एक ऐसा दृष्टिकोण है जो जीवन के किन्ही भी मूल्यों की अवधारणा इस अर्थ में वह मानववादी विचारणा के साथ है। कर सकता है। चेतना के नियंत्रण में जो जीवन है, वही सच्चा जीवन मानवतावाद कर्म के औचित्य और अनौचित्य का निर्धारण समाज है। नैतिक होने का अर्थ यह जानना है कि हम क्या कर रहे हैं? पर उसके परिणाम के आधार पर करता है। लेमान्ट के अनुसार कर्म-प्रेरक जागृत चेतना नैतिकता है और प्रसुप्त चेतना अनैतिकता है। शुभ एवं और कर्म में विशेष अन्तर नहीं है। कोई भी क्रिया बिना प्रेरणा के उचित कार्य वह नहीं, जिसमें आत्मविस्मृति होती है। वरन् वह है नहीं होती है और जहाँ प्रेरणा होती है, वहाँ कर्म भी होता है। तुलनात्मक जिसमें आत्मचेतना होती है। दृष्टि से इस प्रश्न पर विचार करते समय हम यह पाते हैं कि बौद्ध दर्शन और गीता स्पष्ट रूप से कर्म के औचित्य और अनौचित्य का के अति निकट है। वारनरफिटे की नैतिक दर्शन की यह मान्यता अति निर्धारण कर्मप्रेरक के आधार पर करते हैं, कर्म-परिणाम के आधार स्पष्ट रूप में जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों में उपलब्ध है। पर नहीं और इस आधार पर वे मानवतावाद से कोई साम्य नहीं रखते। फिटे जिसे आत्मचेतना कहते हैं, उसे जैन दर्शन में अप्रमत्तता या जहाँ तक जैन दर्शन का प्रश्न है, वह व्यवहार दृष्टि से कर्म-परिणाम आत्मजागृति कहा गया है। जैन दर्शन के अनुसार प्रमाद आत्मविस्मृति को और निश्चय दृष्टि से कर्म-प्रेरक को औचित्य अनौचित्य के निर्णय की अवस्था है। जैन दर्शन में प्रमाद को अनैतिकता का प्रमुख कारण का आधार बनाता है। इस प्रकार उसकी मानवतावाद से इस सम्बन्ध माना गया है। जो भी क्रियाएँ प्रमाद के कारण होती हैं या प्रमाद की में आंशिक समानता है। अवस्था में की जाती हैं वे सभी अनैतिक मानी गयी हैं। 'आचारांग' मानवतावाद मनुष्य को ही समग्र मूल्यों का मानदण्ड स्वीकार में महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जो प्रसुप्त चेतना वाला है करता है। इस प्रकार वह मानवीय जीवन को सर्वधिक महत्त्व प्रदान वह अमुनि (अनैतिक) है और जो जाग्रत चेतना वाला है वह मुनि करता है। यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से इस प्रश्न को देखें तो हमें (नैतिक) है। सूत्रकृतांग' में प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म यह स्पष्ट रूप से स्वीकार करना होगा कि भारतीय परम्परा भी मानवीय कहकर यही बताया गया है कि जो क्रियाएँ आत्मविस्मृति लाती हैं, जीवन के महत्त्व को स्वीकार करती है। जैन आगमों में मानव जीवन वे बन्धनकारक हैं और इसलिए अनैतिक भी हैं। इसके विपरीत हो को दुर्लभ बताया गया है। आचार्य अमितगति ने स्पष्ट रूप से कहा क्रियाएँ अप्रमत्त चेतना की अवस्था में सम्पन्न होती है, वे अबन्धकारक है कि जीवन में मनुष्य का जीवन ही सर्वश्रेष्ठ है। 'धम्मपद' में भगवान् होती हैं और इस रूप में पूर्णतया विशुद्ध और नैतिक होती हैं। इस बुद्ध ने भी मनुष्य जन्म को दुर्लभ बताया है। 'महाभारत' में व्यास प्रकार हम देखते हैं कि वारनर फिटे का आत्मचेतनतावादी दृष्टिकोण ने भी यही कहा है कि यदि कोई रहस्यमय बात है तो वह यह है जैन दर्शन के अति निकट है। कि मनुष्य से श्रेष्ठ और कोई नहीं हैं। तुलसीदासजी ने इसी तथ्य न केवल जैनदर्शन में वरन् बौद्वदर्शन में भी आत्मचेतनता को को यह कहकर प्रकट किया है कि- 'बड़े भाग मानुष तन पावा, नैतिकता का प्रमुख आधार माना गया है। 'धम्मपद' में बुर स्पष्ट रूप सुर दुर्लभ सब ग्रन्थहिं गावा'। इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय से कहते हैं कि अप्रमाद अमरता का मार्ग है और प्रमाद मृत्यु का। चिन्तन में भी मनुष्य जीवन के सर्वोच्च मूल्य को स्वीकार किया गया बौद्वदर्शन में अष्टांग साधना-मार्ग में सम्यक् स्मृति भी इसी बात को है। यहाँ हम पाते हैं कि मानवतावादी विचार-परम्परा की जैन दर्शन स्पष्ट करती है कि आत्मस्मृति या जागृत चेतना ही नैतिकता का आधार से तथा सामान्य रूप से भारतीय दर्शन से निकटता है। समकालीन है, जबकि आत्मविस्मृति या प्रसुप्त चेतना अनैतिकता का आधार है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीति के मानवतावादी सिद्धान्त और जैन आचार-दर्शन २८३ बुद्ध नन्द को उपदेश देते हुए कहते हैं कि जिसके पास स्मृति नहीं गनेंट ने आचरण में विवेक के लिए उन समग्र परिस्थितियों एवं है उसे आर्यसत्य कहाँ से प्राप्त होगा। इसलिए चलते हुए ‘चल रहा सभी पक्षों का विचार आवश्यक माना है जिनमें कर्म किया जाना है। हूँ', खड़े होते हुए 'खड़ा हो रहा हूँ' एवं इसी प्रकार दूसरे कार्य करते वह कर्म के सभी पक्षों पर विचार आवश्यक मानता है, जिसे हम समय अपनी स्मृति बनाये रखो। इस प्रकार हम देखते हैं कि बुद्ध जैन दर्शन के अनेकान्तवाद के सिद्धान्त के द्वारा सम्यक् प्रकार से भी आत्मचेतनता को नैतिक जीवन का केन्द्र स्वीकार करते हैं। स्पष्ट कर सकते हैं। जैन दर्शन की अनेकान्तवादी धारणा भी यही गीता में भी सम्मोह से, स्मृति-विनाश और स्मृतिविन्यास से निर्देश देती है कि विचार के क्षेत्र में हमें एकांगी दृष्टिकोण रखकर बद्धि-नाश कहकर यही बताया गया है कि आत्मचेतना नैतिक जीवन निर्णय नहीं लेना चाहिए वरन एक सर्वांगीण दृष्टिकोण रखना चाहिए। के लिए एक आवश्यक तथ्य है। इस प्रकार गर्नेट का सभी पक्षों के विचार का प्रत्यय जैन दर्शन के अनेकान्तवादी सर्वांगीण दृष्टिकोण से अधिक दूर नहीं है। विवेकवाद' और जैनदर्शन मानवतावादी विचारकों में दूसरा वर्ग विवेक को प्राथमिक मानवीय आत्मसंयम का सिद्धान्त और जैनदर्शन गुण स्वीकार करता है। सी०बी० गर्नेट और इस्राइल लेविन के अनुसार मानवतावादी नैतिक दर्शन के तीसरे वर्ग का प्रतिनिधित्व इरविंग नैतिकता विवेकपूर्ण जीवन जीने में है। गर्नेट के अनुसार विवेक-संगति बबिट करते हैं। ११ बबिट के अनुसार मानवता एवं नैतिक जीवन का नहीं वरन् जीवन में कौशल या चतुराई का होना है। बौद्धिकता या सार न तो आत्मचेतन जीवन जीने में है और न विवेकपूर्ण जीवन तर्क उसका एक अंग हो सकता है समग्र नहीं। गर्नेट, अपनी पुस्तक में, वरन् वह संयमपूर्ण जीवन या आत्म-अनुशासन में है। बबिट "विज्डम आफ कन्डक्ट' में प्रज्ञा को ही सर्वोच्च सद्गुण मानते हैं आधुनिक युग के संकट का कारण यह बताते हैं कि हमने परम्परागत और प्रज्ञा या विवेक से निर्देशित जीवन जीने में नैतिकता के सार कठोर वैराग्यवादी धारणाओं को तोड़ दिया और उनके स्थान पर ठीक तत्त्व की अभिव्यक्ति मानते हैं। उनके अनुसार नैतिकता की सम्यक् रूप से आदिम भोगवाद को ही प्रस्तुत किया है। वर्तमान युग के विचारकों एवं सार्थक व्याख्या शुभ-उचित कर्तव्य आदि नैतिक प्रत्ययों की व्याख्या ने परम्परागत धारणाओं के प्रतिवाद में एक ऐसी गलत दिशा का चयन में नहीं वरन् आचरण में विवेक के सामान्य प्रत्यय में है। आचरण किया है, जिसमें मानवीय हितों को चोट पहुँची है। उनका कथन है में विवेक एक ऐसा तत्त्व है जो नैतिक परिस्थिति के अस्तित्ववान कि मनष्य में निहित वासना रूपी पाप को अस्वीकत करने का अर्थ पक्ष अर्थात् चरित्र, प्रेरणाएँ, आदत, रागात्मकता, विभेदीकरण, उस बुराई को ही दृष्टि से ओझल कर देना है, जिसके कारण मानवीय मूल्य-निर्धारण और साध्य को दृष्टिगत रखता है। इन सभी पक्षों को सभ्यता का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। मानवीय वासनाएँ पाप पूर्णतया दृष्टि में रखे बिना जीवन में विवेक पूर्ण आचरण की आशा हैं, अनैतिक हैं, इस बात को भूलकर हम मानवीय सभ्यता का ही ही नहीं की जा सकती। आचरण में विवेक एक ऐसी लोचपूर्ण दृष्टि विनाश करेंगे, जबकि उसके प्रति जागृत रहकर हम मानवीय सभ्यता है जो परिस्थितियों के सभी पक्षों की सम्यक् विचारणा के साथ खोज का विकास कर सकेंगे। बबिट बहुत ही ओजपूर्ण शब्दों में कहते हैं करती हुई सुयोग्य चुनावों को करती है। लेविन ने आचरण में विवेक कि हम में जैविक प्रवेग तो बहुत हैं, आवश्यकता है जैविक नियंत्रण का तात्पर्य एक समायोजनात्मक क्षमता से माना है। उसके अनुसार की। हमें अपनी वासनाओं पर नियंत्रण करना चाहिए। केवल सहानुभूति नैतिक होने का अर्थ मानव की मूलभूत क्षमताओं की अभिव्यक्ति है। के नाम पर सामाजिक एकता नहीं आ सकती। मनुष्यों को सहानुभूति गर्नेट और लेविन के इन दृष्टिकोणों की तुलना जैन आचार-दर्शन के सामान्य तत्त्व के आधार पर नहीं वरन् अनुशासन के सामान्य तत्त्व के साथ करने पर हम पाते हैं कि आचरण में विवेक का प्रत्यय जैन के आधार पर ही एक दूसरे के निकट लाया जा सकता है। सहानुभूति विचारणा एवं अन्य सभी भारतीय विचारणाओं में भी स्वीकृत रहा के विस्तार का नैतिक दर्शन केवल भावनात्मक मानवतावाद की स्थापना है। जैन विचारकों ने सम्यग्ज्ञान के रूप में जो साधना-मार्ग बताया करता है, जबकि आवश्यकता ऐसे ठोस मानवतावाद की है जो है वह केवल तार्किक ज्ञान नहीं है वरन् एक विवेकपूर्ण दृष्टि है। जैन अनुशासन पर बनता है। पर मेरा में आचरण में विवेक के लिए या विवेकपूर्ण आचरण के लिए तुलनात्मक दृष्टि से विचार करते हुए हम यह पाते हैं कि सभी 'यसना' शब्द का प्रयोग हुआ है। 'दशवैकालिक सूत्र' में स्पष्ट रूप समालोच्य आचार-दर्शन संयम के प्रत्यय को स्वीकार करते हैं। जैन से यह बताया गया है कि जो जीवन की विभिन्न क्रियाओं को विवेक दर्शन नैतिक पूर्णता के लिए संयम का आवश्यक मानता है। उसके या सावधानीपूर्वक सम्पादित करता है वह अनैतिक आचरण नहीं करता। त्रिविध साधना-पथ में सम्यक् आचारण को भी वही मूल्य है जो विवेक है। बौद्ध परम्परा में भी यही दृष्टिकोण स्वीकृत रहा है। बुद्ध ने भी और भावना का है। 'दशवैकालिकसूत्र' में धर्म को अहिंसा, संयम 'अङ्गत्तरनिकाय' में महावीर के समान ही इसे प्रतिपादित किया है। और तपोमय बताया है।३ वस्तुतः अहिंसा और तप भी संयम के गीता में कर्म-कौशल को ही योग कहा गया है जो कि विवेक-दृष्टि पोषक ही हैं और इस अर्थ में संयम ही एक महत्त्वपूर्ण अंग है। का सूचक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि समालोच्य आचार-दर्शनों जैन भिक्ष-जीवन और गृहस्थ-जीवन में संयम या अनुशासन को सर्वत्र में भी आचरण में विवेक का प्रत्यय स्वीकृत रहा है। ही महत्त्व दिया गया है। महावीर के सम्पूर्ण उपदेश का सार असंयम Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ से निवृत्ति और संयम में प्रवृति है। १३ इस प्रकार हम देखते हैं कि समकालीन मानवतावादी विचारकों के उपरोक्त तीनों सिद्धान्त बबिट का यह दृष्टिकोण जैन दर्शन के अति निकट है। उसका यह यद्यपि भारतीय चिन्तन में स्वीकृत रहे हैं तथापि भारतीय विचारकों कहना कि वर्तमान युग में संकट का कारण संयमात्मक मूल्यों का की यह विशेषता रही है कि उन्होंने इन तीनों को समवेत रूप में ह्रास है, जैन दर्शन को स्वीकार है। वस्तुत: आत्मसंयम और अनुशासन स्वीकार किया है। जैन दर्शन में सम्यक ज्ञान, दर्शन और चारित्र के आज के युग की सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है, जिसे इन्कार नहीं ___ रूप में, बौद्ध दर्शन में शील, समाधि और प्रज्ञा के रूप में तथा गीता किया जा सकता। में श्रद्धा, ज्ञान और कर्म के रूप में प्रकारान्तर से इन्हें स्वीकार किया न केवल जैन दर्शन में वरन् बौद्ध और वैदिक दर्शन में भी गया है। फिर भी गीता की श्रद्धा को आत्मचेतनता नहीं कहा जा सकता संयम और अनुशासन के प्रत्यय को आवश्यक माना गया है। भारतीय है। बौद्ध दर्शन के इस त्रिविध साधना-पथ में समाधि आत्मसनता नैतिक चिन्तन में संयम का प्रत्यय एक ऐसा प्रत्यय है जो सभी का, प्रज्ञा विवेक का और शील संयम का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसी आचार-दर्शनों में और सभी कालों में स्वीकृत रहा है। संयमात्मक जीवन प्रकार जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन आत्मचेतनता का, सम्यग्ज्ञान विवेक भारतीय संस्कृति की विशेषता रहा है। बबिट का यह विचार भारतीय का और सम्यक्चरित्र संयम का प्रतिनिधित्व करते हैं। चिन्तन के लिए कोई नया नहीं है। सन्दर्भ: १. देखिये - (अ) समकालीन दार्शनिक चिन्तन, डॉ० हृदयनारायण मिश्र, पृ० ३००-३२५। (ब) कन्टेम्पररि एथिकल थ्योरीज़, पृ० १७७-१८८। (अ) माणुस्सं सुदुल्लहं। - उत्तराध्ययनसूत्र। (ब) भवेषु मानुष्यभव: प्रधानम् । - अमितगति। (स) किच्चे मणुस्स पटिलाभो। – धम्मपद, १८२। (द) गुह्यं तदिदं ब्रवीमि। न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित् । - महाभारत, शान्तिपर्व, २९९/२०। ४. आचाराङ्ग, ११/३। ५. सूत्रकृताङ्ग, १/८/३। धम्मपद, २/११ ७. सौन्दरनन्द, १४/४३-४५। ८. गीता, २/६३। देखिये - (अ) कण्टेम्पररि एथिकल थ्योरीज़, पृ० १८१-१८४। (ब) विज़डम ऑफ कण्डक्ट - सी०बी०गनेंट। १०. दशवैकालिक, ४/८।। ११. बबिट के दृष्टिकोण के लिए देखिये - (अ) कण्टेम्पररि एथिकल थ्योरीज़, पृ० १८५-१८६। (ब) दि ब्रेकडाउन ऑफ इण्टरनेशनलिज्म। - प्रकाशित 'दि नेशन' खण्ड स (८) १९१५। १२. दशवैकालिक, १/१॥ १३. उत्तराध्ययन, ३१/२।