Book Title: Nishkam Karmyog Author(s): Mahatma Gandhi Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 3
________________ निष्काम कर्मयोग ] [ 267 स्वभाव के अनुसार कर्म हो, वहाँ बलात्कार से न करने का दावा करने में ही अहंकार समाया हुआ है। ऐसा बलात्कार करने वाला बाहर से चाहे कर्म न करता जान पड़े, पर भीतर-भीतर तो उसका मन प्रपंच रचता ही रहता है। बाहरी कर्म की अपेक्षा यह बुरा है, अधिक बंधनकारक है। तो, वास्तव में तो इन्द्रियों का अपने-अपने विषयों में राग-द्वेष विद्यमान ही है। कानों को यह सुनना रुचता है, वह सुनना नहीं। नाक को गुलाब के फूल की सुगंध भाती है, मल वगैरह की दुर्गन्ध नहीं। सभी इन्द्रियों के संबंध में यही बात है। इसलिये मनुष्य को इन राग-द्वेषरूपी दो गुणों से बचना चाहिये और इन्हें मार भगाना हो तो कर्मों की श्रृंखला में न पड़े। आज वह किया, कल दूसरा काम हाथ में लिया, परसों तीसरा, यों भटकता न फिरे, बल्कि अपने हिस्से में जो सेवा आ जाये, उसे ईश्वर प्रीत्यर्थ करने को तैयार रहे / तब यह भावना उत्पन्न होगी कि जो हम करते हैं, वह ईश्वर ही कराता है-यह ज्ञान उत्पन्न होगा और अहं भाव चला जायेगा। इसे स्वधर्म कहते हैं। स्वधर्म से चिपटे रहना चाहिये क्योंकि अपने लिये तो वही अच्छा है। देखने में पर धर्म अच्छा दिखायी दे तो भी उसे भयानक समझना चाहिये / स्वधर्म पर चलते हुए मृत्यु होने में मोक्ष है। - भगवान् के राग-द्वेष रहित होकर किये जाने वाले कर्म को यज्ञ रूप बतलाने पर अर्जुन ने पूछा--"मनुष्य किसकी प्रेरणा से पाप कर्म करता है ? अक्सर तो ऐसा लगता है कि पाप कर्म की ओर कोई उसे जबर्दस्ती ढकेले ले जाता है।" भगवान् बोले-"मनुष्य को पाप कर्म की ओर ढकेल ले जाने वाला काम है और क्रोध है। दोनों सगे भाई की भाँति हैं, काम की पूर्ति के पहले ही क्रोध आ धमकता है / काम-क्रोध वाला रजोगुणी कहलाता है / मनुष्य के महान शत्रु ये ही हैं। इनसे नित्य लड़ना है। जैसे मैल चढ़ने से दर्पण धुंधला हो जाता है, या अग्नि धुएँ के कारण ठीक नहीं जल पाती और गर्भ झिल्ली में पड़े रहने तक घुटता रहता है, उसी प्रकार काम-क्रोध ज्ञानी के ज्ञान को प्रज्वलित नहीं होने देते, फीका कर देते हैं या दबा देते हैं / काम अग्नि के समान विकराल है और इन्द्रिय, मन, बुद्धि, सब पर अपना काबू करके मनुष्य को पछाड़ देता है / इसलिये तू इन्द्रियों से पहले निपट, फिर मन को जीत, तो बुद्धि तेरे अधीन रहेगी, क्योंकि इन्द्रियां, मन और बुद्धि क्रमशः एक दूसरे से बढ़ चढ़कर हैं, तथापि आत्मा उन सबसे बहुत बढ़ा-चढ़ा है। मनुष्य को आत्मा की अपनी शक्ति का पता नहीं है, इसलिये वह मानता है कि इन्द्रियाँ वश में नहीं रहतीं, मन वश में नहीं रहता या बुद्धि काम नहीं करती। आत्मा की शक्ति का विश्वास होते ही बाकी सब आसान हो जाता है / इन्द्रियों को, मन और बुद्धि को ठिकाने रखने वाले का काम, क्रोध या उनकी असंख्य सेना कुछ नहीं कर सकती। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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