Book Title: Nishkam Karmyog Author(s): Mahatma Gandhi Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 1
________________ ३८ । निष्काम कर्मयोग - महात्मा गांधी हे पापरहित अर्जुन ! आरंभ से ही इस जगत् में दो मार्ग चलते आये हैं-एक में ज्ञान की प्रधानता है और दूसरे में कर्म की । पर तू स्वयं देख ले कि कर्म के बिना मनुष्य अकर्मी नहीं हो सकता, बिना कर्म के ज्ञान आता ही नहीं। सब छोड़कर बैठ जाने वाला मनुष्य सिद्धपुरुष नहीं कहला सकता। तू देखता है कि प्रत्येक मनुष्य कुछ-न-कुछ तो करता ही है। उसका स्वभाव ही उससे कुछ करायेगा। जगत् का यह नियम होने पर भी जो मनुष्य हाथ-पाँव ढीले करके बैठा रहता है और मन में तरह-तरह के मनसूबे करता रहता है, उसे मूर्ख कहेंगे और वह मिथ्याचारी भी गिना जायेगा। क्या इससे यह अच्छा नहीं कि इन्द्रियों को वश में रखकर, राग-द्वेष छोड़कर, शोरगुल के बिना, आसक्ति के बिना अर्थात् अनासक्त भाव से, मनुष्य हाथ-पाँवों से कुछ कर्म करे, कर्मयोग का आचरण करे ? नियत कर्म-तेरे हिस्से में आया हुआ सेवा कार्य--तू इन्द्रियों को वश में रखकर करता रह । आलसी की भाँति बैठे रहने से यह कहीं अच्छा है। आलसी होकर बैठे रहने वाले के शरीर का अंत में पतन हो जाता है। पर कर्म करते हुए इतना याद रखना चाहिये कि यज्ञ-कार्य के सिवा सारे कर्म लोगों को बंधन में रखते हैं। यज्ञ के मानी है, अपने लिये नहीं, बल्कि दूसरे के लिये, परोपकार के लिये, किया हुआ श्रम, अर्थात् संक्षेप में सेवा । और जहाँ सेवा के निमित्त ही सेवा की जायेगी, वहाँ आसक्ति, राग-द्वेष नहीं होगा। ऐसा यज्ञ, ऐसी सेवा, तू करता रह । ब्रह्मा ने जगत् उपजाने के साथ-ही-साथ यज्ञ भी उपजाया, मानो, हमारे कान में यह मंत्र का कि पृथ्वी पर जाओ, एक दूसरे की सेवा करो और फूलोफलो, जीव मात्र को देवतारूप जानो, इन देवों की सेवा करके तुम उन्हें प्रसन्न रखो, वे तुम्हें प्रसन्न रखेंगे। प्रसन्न हुए देव तुम्हें बिना मांगे मनोवांछित फल देंगे। इसलिये यह समझना चाहिये कि लोक-सेवा किये बिना, उनका हिस्सा उन्हें पहले दिये बिना, जो खाता है, वह चोर है और जो लोगों का, जीवमात्र का भाग उन्हें पहुँचाने के बाद खाता है या कुछ भोगता है, उसे वह भोगने का अधिकार है । अर्थात् वह पापमुक्त हो जाता है। इससे उलटा, जो अपने लिये ही कमाता है-मजदूरी करता है-वह पापी है और पाप का अन्न खाता है । सृष्टि का नियम ही यह है कि अन्न से जीवों का निर्वाह होता है। अन्न वर्षा से पैदा होता है और वर्षा यज्ञ से अर्थात् जीवमात्र की मेहनत से उत्पन्न होती है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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