Book Title: Nischay aur Vyavahar Moksh Marg
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf

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Page 3
________________ व्यवहारसम्यग्दर्शनका स्वरूप जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष नामके सात तत्त्वोंके प्रति जीवके अन्तःकरण में श्रद्धा अर्थात् इनके स्वरूपादिकी वास्तविकताके सम्बन्धमें ज्ञानकी दृढ़ता (आस्तिक्य भाव ) जागृत हो जानेका नाम व्यवहारसम्यर्शन है । इसके आधारपर ही जीवोंको उपर्युक्त निश्चय सम्यग्दर्शनकी उपलब्धि हुआ करती है। आचार्य उमास्वामी के तत्त्वार्थ सूत्रमें व स्वामी समन्तभद्रके रत्नकरण्डकश्रावकाचार में सम्यग्दर्शनका जो स्वरूप उपलब्ध होता है वह व्यवहारसम्यग्दर्शनका ही स्वरूप है। यद्यपि उमास्वामीके तत्वार्थ सूत्र में उपर्युक्त सात तत्त्वोंके श्रद्धानका नाम ही सम्यग्दर्शन कहा है। लेकिन स्वामी समन्तभद्रके रत्नकरण्डकधावकाचार में सम्यग्दर्शनका लक्षण इस रूपमें बतलाया है कि परमार्थ अर्थात् वीतरागताके आदर्श देवों, परमार्थ अर्थात् वीतरागताके पोषक शास्त्रों और परमार्थ अर्थात् वीतरागताके मार्ग में प्रवृत्त गुरुओंके प्रति जीवके अन्तःकरणमें भक्तिका जागरण हो जाना सम्यग्दर्शन है।" अतः तत्त्वायंसूत्र और रत्नकरण्डका विकाधारमें प्रतिपादित सम्यग्दर्शनके इन लक्षणोंमें उपर्युक्त प्रकारसे यद्यपि भेद दिखाई देता है । परन्तु गहराईसे विचार करने पर मालूम हो जाता है कि रत्नकरण्डकश्रावकाचार में प्रतिपादित लक्षणसे भी निष्कर्ष के रूप में जीवके अन्तःकरणमें उपर्युक्त सात तत्त्वोंके प्रति आस्तिक्यभावकी जागृति हो जाना ही सम्यग्दर्शनका स्वरूप निश्चित होता है। व्यवहारसम्यग्ज्ञानका स्वरूप वीतरागताके पोषक अथवा सप्ततस्योंके यथावस्थित स्वरूपके प्रतिपादक आगमका श्रवण पठन, पाठन, अभ्यास, चिन्तन और मननका नाम व्यवहार नम्यग्ज्ञान है । इस प्रकारके व्यवहारसम्यज्ञानके आधार पर ही जीवोंको समस्त वस्तुओंके और विशेष कर आत्मा के स्वतः सिद्ध स्वरूपका बोध होता है । जैसे आत्माका स्वतः सिद्ध स्वरूप ज्ञायकपना अर्थात् समस्त पदार्थों को देखने-जाननेकी शक्ति रूप है । चूँकि यह स्वरूप स्वतः सिद्ध है । अतः यह आत्मा के अनादि, अनिधन स्वाश्रित और अखण्ड (स्वरूपके साथ तादात्म्यको लिए हुए) अस्तित्वको सिद्ध करता है। हमें आत्माके इस तरहके स्वरूपको समझने में उपर्युक्त प्रकारके आगमका श्रवण, पठन पाठन, अभ्यास, चिन्तन और मनन सहायक होता है । ३ / धर्म और सिद्धान्त ३३ विचार कर देखा जाय तो सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेसे पूर्व ही इस प्रकारके सम्यक् अर्थात् वीतराग ताके पोषक ज्ञानको प्राप्त करनेकी प्रत्येक जीवके लिये आवश्यकता है । आचार्य कुन्दकुन्दके समयसारकी गाथा १८ से भी यही संकेत प्राप्त होता है क्योंकि उसमें बतलाया है कि पहले आत्मारूपी राजाकी पहिचान करो, फिर उसका श्रद्धान अर्थात् आश्रयण करो और तत्पश्चात् उसके अनुकूल आचरण करो तो मोक्षकी प्राप्ति होगी । इस तरह मोक्षमार्ग में यद्यपि सम्यग्दर्शनसे पूर्व ही सम्यग्ज्ञानको स्थान देना चाहिये। परन्तु वहाँपर इसको जो १. तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । त० सू० १-२ । जीवाजीवासवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तरत्वम् । तत्त्वार्थसूत्र १-४ । २. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक ४ । ३. समयसार, गाथा ६ | ४. पंचाध्यायी, श्लोक ८ । ५. समयसार, गाथा १८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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