Book Title: Nischay aur Vyavahar Moksh Marg
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf

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Page 13
________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ४३ कारण हैं' तथा सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्ररूप जो औपशमिक, क्षायिक व क्षायोपशमिक भाव हैं वे भाव मोक्षके कारण हैं। यद्यपि मिथ्याज्ञानरूप क्षायोपशमिक भावको भी बन्धका कारण तथा सम्यग्ज्ञानरूप क्षायोपशमिक और क्षायिकभावको भी मोक्षका कारण आगममें स्वीकार किया गया है । परन्तु इसके विषय में यह बात ध्यान देने योग्य है कि ज्ञानकी संसारकारणता और मोक्षकारणता यथायोग्य मोहनीयकर्म के उदय, उपशम, क्षय व क्षयोपशमसे सम्बद्ध होकर ही मानी गयी है। यही कारण है कि चतुर्दश गुणस्थान- व्यवस्थामें केवल मोहनीय कर्मको ही उदय, उपशम, क्षय तथा क्षयोपशमके आधारपर आगममें प्रमुखता दी गयी है । 3 उक्त कथनका विस्तार यह है कि उक्त औदयिक भाव मोहनीयकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेके कारण जीवके संसारके कारण होते हैं। औपशमिक भाव मोहनीयकर्मके उपशमसे उत्पन्न होने के कारण यद्यपि संसारके कारण नहीं होते, परन्तु ये जीवमें अन्तर्मुहूर्त तक ही ठहरते हैं अर्थात् मुहूर्तके अन्दर अन्दर ही ये नष्ट हो जाते हैं, इसलिए मोक्षके कारण होकर भी इनसे जीवको साक्षात् मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती है। इन्हें छोड़कर मोहनीयकर्मकी उस उस प्रकतिके सर्वथा क्षयसे उत्पन्न होनेवाले क्षायिक भाव ही जीवकी मोक्ष प्राप्ति में साक्षात् कारण हुआ करते हैं । अर्थात् उक्त क्षायिक भावोंको प्राप्त कर लेनेपर जीव नियमसे मुक्तिको प्राप्त करता है। कारण कि ये भाव जीवको एक बार प्राप्त हो जानेपर फिर कभी नष्ट नहीं होते हैं। आयोपशमिक भावोंके विषय में व्यवस्था यह है कि इनमें सर्वघाती प्रकृतिके वर्तमान समय में उदय आनेवाले निषेकोंका उदयाभावी क्षय और उसी सर्वघाती प्रकृतिके आगामी कालमें उदय आनेवाले निषेकोंका सदवस्थारूप उपशम तथा देशघाती प्रकृतिका उदय विद्यमान रहा करता है अतः इनमें देशघाती प्रकृतिका उदय कार्यकारी रहनेके कारण तो संसारको कारणता व सबंधाती प्रकृतिका उदयाभावीक्षय तथा सदवस्थारूप उपशम भी कार्यकारी रहने के कारण मोक्षकी कारणता इस तरह दोनों ही प्रकारकी कारणतायें विद्यमान रहा करती हैं । यही कारण है कि आगममें यह बात स्पष्ट कर दी गयी है कि जीवमें जिस कालमें जितना दर्शन, ज्ञान और चारित्रका अंश प्रकट रहता है उतने रूपमें उसके कर्मबन्ध नहीं होता है और उसी कालमें जितना दर्शन, ज्ञान और चारित्रका अपना-अपना विरोधी रागांश प्रकट रहता है उतने रूप में उसका कर्मबन्ध भी होता है।" इस प्रकार क्षायोपशमिक भावोंमें यद्यपि संसार और मुक्ति उभयकी कारणता विद्यमान रहा करती है फिर भी उन्हें आगममें मोक्षका ही कारण बतलाया गया है, संसारका नहीं ।" यह बात हम पूर्व में भी कह चुके है। इसको यों भी स्पष्ट किया जा सकता है कि आगम में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको औपशमिक, क्षयिक व क्षायोपशमिकका भेद न करके सामान्यरूपसे ही मोक्षका कारण प्रतिपादित किया गया है व औदयिक भावरूप मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रको संसारका कारण प्रतिपादित किया गया है। इतनी बात अवश्य आगम में स्पष्ट कर दी गयी है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप मोक्षमार्गपर आरूढ़ हुआ जीव यदि शुद्धोपयोगको भूमिकाको प्राप्त करके क्षपकक्षेणीपर आरूढ़ हो जावे तो वह मोक्ष सुखको ही प्राप्त करता है।" लेकिन यदि कोई जीव शुद्धोपयोगको भूमिकाको प्राप्त होकर भी क्षपक १. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक, ३ । २. तत्वार्थसूत्र ११ । ३. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४ । ४. पुरुषार्थसिद्धध्याय श्लोक २१२, २१३, २१४ । ५. वही, श्लोक २११ । ६. तत्त्वार्थसूत्र, १-१ । ७-८. रत्नकरण्डकश्रावकाचार श्लोक २. १ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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