Book Title: Niryukti Sahitya Ek Punarchintan Author(s): Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf View full book textPage 5
________________ हैं, जो नियुक्तिकार पूर्वधर भद्रबाहु हैं, इस मान्यता के विरोध में जाते हैं। हम उनकी स्थापनाओं के हार्द को ही हिन्दी भाषा में रूपान्तरित कर निम्न पंक्तियों में प्रस्तुत कर रहे हैं १. आवश्यकनियुक्ति की गाथा ७६२ से ७७६ तक में वज्रस्वामी के विद्यागुरु आर्यसिंहगिरि, आर्यवज्रस्वामी, तोषलिपुत्र, आर्यरक्षित, आर्य फल्गुमित्र, स्थविर भद्रगुप्त जैसे आचार्यों का स्पष्ट उल्लेख है । ३४ ये सभी आचार्य चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु से परवर्ती हैं और तोषलिपुत्र को छोड़कर शेष सभी का उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरावली में है। यदि निर्युक्तियाँ चतुर्दश पूर्वधर आर्यभद्रबाहु की कृति होती तो उनमें इन नामों के उल्लेख सम्भव नहीं थे। यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य २. इसी प्रकार पिण्डनिर्युक्ति की गाथा ४९८ में पादलिप्ताचार्य ३५ का एवं गाथा ५०३ से ५०५ में वज्रस्वामी के मामा समितसूरि" का उल्लेख है साथ ही ब्रह्मदीपकशाला का उल्लेख भी है— ये तथ्य यही सिद्ध करते हैं कि पिण्डनिर्युक्ति भी चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु की कृति नहीं है, क्योंकि पादलिप्तसूरि समितसूरि तथा ब्रह्मदीपक शाखा की उत्पत्ति, ये सभी प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु से परवर्ती हैं। ३. उत्तराध्ययननियुक्ति की गाथा १२० में कालकाचार्य" की कथा का संकेत है। कालकाचार्य भी प्राचीनगोत्रीय पूर्वधर भद्रबाहु से लगभग तीन सौ वर्ष पश्चात् हुए हैं। ४. ओघनियुक्ति की प्रथम गाथा में चतुर्दश पूर्वधर, दश पूर्वधर एवं एकादश- अंगों के ज्ञाताओं को सामान्य रूप से नमस्कार किया गया है, ऐसा द्रोणाचार्य ने अपनी टीका में सूचित किया है। ४० यद्यपि मुनि श्री पुण्यविजय जी सामान्य कथन की दृष्टि से इसे असंभावित नहीं मानते हैं, क्योंकि आज भी आचार्य, उपाध्याय एवं मुनि नमस्कारमंत्र में अपने से छोटे पद और व्यक्तियों को नमस्कार करते हैं। किन्तु मेरी दृष्टि में कोई भी चतुर्दश पूर्वधर दशपूर्वधर को नमस्कार करे, यह उचित नहीं लगता। पुनः आवश्यक नियुक्ति की गाथा ७६९ में दस पूर्वधर वज्रस्वामी को नाम लेकर जो वंदन किया गया है, ' ४१ वह तो किसी भी स्थिति में उचित नहीं माना जा सकता है। ५. पुनः आवश्यकनियुक्ति की गाथा ७६३ से ७७४ में यह कहा गया है कि शिष्यों की स्मरण शक्ति के ह्रास को देखकर आर्य रक्षित ने वज्रस्वामी के काल तक जो आगम अनुयोगों में विभाजित नहीं थे, उन्हें अनुयोगों में विभाजित किया, " यह कथन भी एक परवर्ती घटना को सूचित करता है। इससे भी यही फलित होता है कि नियुक्तियों के कर्त्ता चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु नहीं हैं, अपितु आर्यरक्षित के पश्चात् होने वाले कोई भद्रबाहु हैं । ६. दशवैकालिकनियुक्ति की गाथा ४ एवं ओघनियुक्ति की गाथा २ में 'चरणकरणानुयोग की नियुक्ति कहूंगा ऐसा उल्लेख है यह भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है कि नियुक्ति की रचना अनुयोगों के विभाजन के बाद अर्थात् आर्यरक्षित के पश्चात् हुई है। ७. आवश्यकनिर्युक्ति की गाथा ७७८- ७८३ में तथा उत्तराध्ययननियुक्ति की गाथा १६४ से १७८ तक में ७ निलवों और ४६ Giri Jain Education International आठवें बोटिक मत की उत्पत्ति का उल्लेख हुआ है। अन्तिम सातवाँ निव वीरनिर्वाण संवत् ५८४ में तथा बोटिक मत की उत्पत्ति वीरनिर्वाण संवत् ६०९ में हुई ये घटनाएं चतुर्दशपूर्णधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु के लगभग चार सौ वर्ष पश्चात् हुई हैं। अतः उनके द्वारा रचित नियुक्ति में इनका उल्लेख होना सम्भव नहीं लगता है। वैसे मेरी दृष्टि में बोटिक मत की उत्पत्ति का कथन नियुक्तिकार का नहीं है— नियुक्ति में सात निह्नवों का ही उल्लेख है। निह्नवों के काल एवं स्थान सम्बन्धी गाथाएँ भाष्य गाथाएँ है— जो बाद में नियुक्ति में मिल गई हैं। किन्तु नियुक्तियों में सात निह्नयों का उल्लेख होना भी इस बात का प्रमाण है कि नियुक्तियों प्राचीनगोत्रीय पूर्वधर भद्रबाहु की कृतियाँ नहीं है। ८. सूत्रकृतांगनिर्युक्ति की गाथा १४६ में द्रव्य - निक्षेप के सम्बन्ध में एकभविक, बद्धायुष्य और अभिमुखित नाम - गोत्र ऐसे तीन आदेशों का उल्लेख हुआ है। वे विभिन्न मान्यताएँ भद्रबाहु के काफी पक्षात् ४७ आर्य सुहस्ति, आर्य मंक्षु आदि परवर्ती आचार्यों के काल में निर्मित हुई हैं। अतः इन मान्यताओं के उल्लेख से भी नियुक्तियों के कर्ता चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु हैं, यह मानने में बाधा आती है। मुनि श्री पुण्यविजय जी ने उत्तराध्ययन के टीकाकार शान्त्याचार्य, जो नियुक्तिकार के रूप में चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु को मानते हैं, की इस मान्यता का भी उल्लेख किया है कि नियुक्तिकार त्रिकालज्ञानी हैं। अतः उनके द्वारा परवर्ती घटनाओं का उल्लेख होना असम्भव नहीं है। यहाँ मुनि पुण्यविजय जी कहते हैं कि हम शान्त्याचार्य की इस बात को स्वीकार कर भी लें, तो भी नियुक्तियों में नामपूर्वक वज्रस्वामी को नमस्कार आदि किसी भी दृष्टि से युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता। वे लिखते है यदि उपर्युक्त घटनाएं घटित होने के पूर्व ही नियुक्तियों में उल्लिखित कर दी गयी हो तो भी अमुक मान्यता अमुक पुरुष द्वारा स्थापित हुई यह कैसे कहा जा सकता है। ४९ पुनः जिन दस आगम-ग्रन्थों पर नियुक्ति लिखने का उल्लेख आवश्यकनियुक्ति में है, उससे यह स्पष्ट है कि भद्रबाहु के समय आचारांग, सूत्रकृतांग आदि अतिविस्तृत एवं परिपूर्ण थे। ऐसी स्थिति में उन आगमों पर लिखी गयी नियुक्ति भी अतिविशाल एवं चारों अनुयोगमय होनी चाहिए। इसके विरोध में यदि नियुक्तिकार भद्रबाहु थे, ऐसी मान्यता रखने वाले विद्वान् यह कहते हैं कि नियुक्तिकार तो भद्रबाहु ही थे और वे नियुक्तियों भी अतिविशाल थीं, किन्तु बाद में स्थविर आर्यरक्षित ने अपने शिष्य पुष्यमित्र की विस्मृति एवं भविष्य में होने वाले शिष्यों की मंद बुद्धि को ध्यान में रखकर जिस प्रकार आगमों के अनुयोगों को पृथक् किया, उसी प्रकार नियुक्तियों को भी व्यवस्थित एवं संक्षिप्त किया। इसके प्रत्युत्तर में मुनि श्री पुण्यविजय जी का कथन है- प्रथम, तो यह कि आर्यरक्षित द्वारा अनुयोगों के पृथक् करने की बात तो कही जाती है, किन्तु नियुक्तियों को व्यवस्थित करने का एक भी उल्लेख नहीं है। स्कंदिल आदि ने विभिन्न वाचनाओं में 'आगमों' को ही व्यवस्थित किया, नियुक्तियों को नहीं।" दूसरे, उपलब्ध नियुक्तियाँ उन अंग- आगमों पर नहीं हैं जो भद्रबाहु monarancaran pop mormon For Private & Personal Use Only Win www.jainelibrary.orgPage Navigation
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