Book Title: Nirayavalika Aadi Sutratray Author(s): Dharmchand Jain Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 4
________________ [31 जिनवाणी जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क सोमिल तापस द्वारा काष्ठमुद्रा से मुख को बांधकर उत्तराभिमुख हो उत्तर दिशा में महाप्रस्थान (मरण के लिये गमन) का वर्णन इस बात को सूचित करता है कि उस समय जैन साधुओं के अलावा अन्य तापस भी खुले मुँह नहीं रहते होंगे। यह प्रसंग मुखवस्त्रिका को हाथ में न रखकर मुख पर बांधना सिद्ध करता है। देव द्वारा सोमिल को प्रतिबोध देना. दुष्प्रव्रज्या बतलाना, सोमिल द्वारा पुनः श्रावक के पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रतों को स्वीकार करने का रोचक प्रसंग भी पठनीय है। यह शुक्र देव भी चन्द्र, सूर्य देवों के समान महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य के रूप में उत्पन्न हो यावत् सिद्धि को प्राप्त करेगा। चतुर्थ अध्ययन में बहुपुत्रिका देवी का वर्णन है। बहुपुत्रिका देवी की कथा बहुत ही सरस एवं मनोहारी है। बहुपुत्रिका देवी का भ. महावीर के समवशरण में उपस्थित होना, दाहिनी भुजा से 108 देवकुमारों तथा बांयी भुजा से 108 देवकुमारियों की विकुर्वणा करना, नाटक करना, गणधर गौतम द्वारा जिज्ञासा करने पर भ, महावीर द्वारा पूर्वभव का कश्शन करना, पूर्वभव में बहुपुत्रिका देवी भद्रा सार्थवाह की पत्नी होना, वन्ध्या (पुत्र रहित) होना, बच्चों से प्रगाढ स्नेह होना, साध्वी बन जाना, श्रमणाचार के विपरीत बच्चों को शृंगारित करना, संघ से निष्कासित अकेली रहना तथा आलोचना किये बिना सौधर्म कल्प में बहुपुत्रिका देवी होने की कथा विस्तार से दी गयी है। बहुपुत्रिका देवी का आगामी भव बतलाते हुए कहा है कि वह सोमा नामक ब्राह्मणी होगी। सोलह वर्ष के वैवाहिक जीवन में बत्तीस सन्तान होगी, जिनके लालन-पालन–अशुचि-निवारण आदि से बहुत परेशान होगी। अन्त में संसार से विरक्त हो साध्वी बनेगी, मृत्यु के उपरान्त देव भव प्राप्त करेगी और वहाँ से निकलकर महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य के रूप में उत्पन्न होकर यावत् सिद्धि को प्राप्त करेगी। इस प्रकार निरयावलिका, कल्पावंतसिका व पुष्पिका सूत्र में तथा इसी प्रकार पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा में भी सत्य कथाओं के माध्यम से जैन धर्म के सिद्धान्तों एवं श्रमणाचार, श्रावकाचार की अद्वितीय प्रेरणा प्रदान की गयी है। कृतपापों की आलोचना और प्रायश्चित्त आराधना का यह प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण सूत्र है। अत: साधकों को चाहिये कि जैसे ही उन्हें अपने आप अथवा दूसरों के द्वारा जाने-अनजाने में हो रही भूलों की जानकारी प्राप्त हो, तुरन्त उनकी आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रायश्चित्त द्वारा शुद्धिकरण कर लेना चाहिये तभी वे आराधक बन अपने चरम लक्ष्य-मोक्ष को प्राप्त कर सकेंगे। --रजिस्ट्रार अ.मा. श्री जैन रत्न आध्यात्मिक शिक्षण बोर्ड, जोधपुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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