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निमित्त
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शान्ति से विचारना चाहिए। जो महाशय क्रमबद्ध ही पर्याय कहते हैं उनको शान्ति से पूछिये कि आप में पांच भाव कैसे होते हैं । औदयिक तथा उदीरणा भाव कैसे हो रहा है । फिर उन्हीं से पूछिये कि पाँच भावों में से कौनसा भाव, ओदयिक तथा उदीरणा में से कौन-सा भाव क्रमबद्ध है ? जिस जीव को भावों का ज्ञान नहीं वह तो स्वयं अप्रतिबुद्ध है, और यदि जीव अपनी पर्याय बदल नहीं सकता तो उसको उपदेश देना व्यर्थ है । उपदेश सनने से ही जीव अपना कल्याण कर सकेगा, यह अभिप्राय रखकर तो उपदेश दिया जाता है । सत्-समागम करो, कुसंगति छोडो, ये वाच्य-वाचक भाव होने का क्या कारण है ? यदि क्रमबद्ध ही पर्याय होती है तो प्रवचन का रेकार्ड क्या सोचकर किया जाता है । महापुरुष की गैर हाजिरी में रेकार्ड द्वारा अनेक जीव लाभ उठा सकता है यह सोचकर ही तो रेकार्ड की जाती है ? यदि रेकार्ड से जीवों को लाभ होता ही नहीं है तो व्यर्थ के झंझटों में ज्ञानी पुरुष क्यों पड़ते हैं ? यद्यपि रेकार्ड कराती नहीं है तथापि रेकार्ड द्वारा अनेक जीव लाभ उठाकर अपनी क्रमबद्ध पर्याय का संक्रमणादि कर लेता है । इससे सिद्ध होता है कि आत्मा में क्रमबद्ध तथा अक्रम पर्याय होती है।
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