Book Title: Nikshepvad Ek Anvikshan
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf

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________________ निक्षेपवाद : एक अन्वीक्षण ३२६ में एक-दो नहीं किन्तु अनन्त धर्म गौण-मुख्य भाव से प्रगट-अप्रगट दशा में सदा-सर्वदा संस्थित हैं। इसलिए नय भी अनन्त हैं पर उन सबका वर्गीकरण जैनागमों में सात नयों में किया गया है । उन सातों नयों के मूल में सिर्फ दो प्रकार के नय बताये गये है-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक ।२ पर्यायाथिक के स्थान में भावार्थिक शब्द का प्रयोग हुआ है । उसी प्रकार निक्षेपों के भेद अनन्त हो सकते है । पर निक्षेपों के समस्त भेद-प्रभेदों का समावेश चार प्रकारों में हो जाता है । अनुयोगद्वारसूत्र में बताया गया है-"वस्तु विन्यास के जितने क्रम हैं उतने ही निक्षेप के प्रकार हो सकते हैं। पर उक्त चार निक्षेपों को ही प्राधान्य दिया गया है। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव यह निक्षेपों का वर्गीकरण है।' अनुयोग या व्याख्या के द्वारों के वर्णन में इन चार निक्षेपों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। निक्षेप अपने नाम आदि मेदों के माध्यम से प्रतिपाद्य पदार्थ का स्वरूप समझाने के लिए स्पष्टतर विवेचन करता है। मिन्न-भिन्न शास्त्रों एवं ग्रन्थों में निक्षेपों के भेद दर्शाये गये हैं। स्थानांगसूत्र में 'सर्व' के चार प्रकारों की परिगणना की गई है। वहाँ सर्व के चार निक्षेप बताए गए हैं। नाम-स्थापना इन दो निक्षेपों को शब्दतः बताया गया है और द्रव्य एवं भाव इनको अर्थतः बताया है। 'पूर्व' शब्द पर १३ निक्षेप का उल्लेख हुआ है जैसे नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, दिग्, ताप, क्षेत्र, प्रज्ञापक, पूर्व, वस्तु, प्राभूत, अतिप्राभृत और भाव । 'समय' शब्द पर १२ निक्षेप मिलते हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, कृतीर्थ, संगार, कुल, गण, संकर, गंडी और भाव । 'स्थान' शब्द पर १५ निक्षेप किये गये है-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, अद्ध, ऊर्ध्व, उपरति, वसति, संयम, प्रग्रह, योध, अचल, गणना, सन्धान और भाव । 'एक' शब्द पर सात निक्षेपों का वर्णन मिलता है नाम, स्थापना, द्रव्य, मातृकपद, संग्रह, पर्यव एवं भाव । इस प्रकार "सामायिक" शब्द पर ६ निक्षेपों का वर्णन है। निक्षेपों के अनेक प्रकार आगम साहित्य में मिलते हैं। किन्तु नाम आदि चार निक्षेपों में अन्य निक्षेपों के अनेक प्रकारों का समावेश हो जाता है। इस कारण इन चारों की प्रधानता है। नाम निक्षेप-निरूपण नाम-गुण, जाति, द्रव्य और क्रिया इन चार की अपेक्षा न रखकर किसी का नामकरण १ अनुयोगद्वारसूत्र-१५६; स्थानांग सूत्र ५५२ २ (क) भगवतीसूत्र-१८, १० (ख) भगवतीसूत्र-१८,१०, २५, ३ । २५, ४ ३ (क) जत्थ य जं जाणेज्जा निक्खेवं निरवसेसं । जत्थ वि य न जाणिज्जा चउक्कं निक्खिवे तत्थ ॥ -अनुयोगद्वार (ख) नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः । –तत्त्वार्थसूत्र, अ० १, सू० ५ ४ (क) चतारि सव्वा पन्नत्ता-नाम सव्वए, उवण सव्वए, आएस सव्वए निरवसेसव्वए -स्थानांगसूत्र, २६९ (ख) दशवकालिक हारिभद्रीयावृत्ति । (ग) सूत्रकृतांग। (घ) स्थानांगवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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