________________
निबन्ध-निचय
सुगतमतमथालंकार पर्यन्तमुच्चे-
स्त्रिविधमपि च तर्कं वेत्ति यः साङ्ख्य-भद्दौ ॥४॥ श्रीमत्संगमसिंह सूरिसुकवेस्तस्यांघ्रिसेवा परः,
शिष्य : श्रीजयसिंह रिविदुष स्त्रैलोक्य चूडामणेः ।
2
यः श्री ' नागपुर ' प्रसिद्ध सुपुरस्थायी श्रुतायाऽऽगतः,
श्लोकान् पंच चकार सारजडिमाऽसौ यक्षदेवो मुनिः ॥ ५॥ | मूलश्लोकपुराण ग्र० ३७५० ।।
Jain Education International
: ३
आचार्य हरिभद्र के प्रागमिक दार्शनिक साहित्यिक आदि अनेक विषय के ग्रन्थ पढ़े, लेकिन अनेकान्तजयपताका में तथा उसकी स्वोपज्ञ टीका में जितने जैन जैनेतर ग्रन्थकारों के नामनिर्देश मिले, उतने अन्यत्र कही नहीं, आचार्य श्री ने अपने पूर्वज कुक्काचार्य का दो स्थान पर नामनिर्देश किया, वादिमुख्य के नाम से सम्मतिटीकाकार मल्लवादी का दो जगह पर नाम निर्देश किया है, वादिमुख्य इस नाम से समन्तभद्र को भी याद किया है । अजितयशः प्रभृति से श्वेताम्बर आचार्य का नामोल्लेख किया है, सम्मतिकार के रूप में सिद्धसेन दिवाकर को भी याद किया है । " प्रमाण-मीमांसा", " सर्वज्ञसिद्धि" और "सर्वज्ञसिद्धि टीका' का भी अनेक बार उल्लेख किया है, इनमें से सर्वज्ञसिद्धि, तथा सर्वज्ञसिद्धि टीका- ये दो ग्रन्थ इनके खुद मालूम होते हैं । तब " प्रमाण - मीमांसा" इनके गुरु अथवा प्रगुरु की होगी ऐसा उल्लेख से पता लगता है, जैनेतर विद्वानों में महाभाष्यकार पतञ्जलि, वाक्यपदीयकार भर्तृहरि और महर्षि पाणिनि धर्मपाल, धर्मकीर्ति, शुभगुप्त, भदन्तदिन्न, इन नामों का उल्लेख किया है । वसुबन्धु की विंशिका तथा असंग के ग्रन्थ के अवतरण दिये हैं, धर्मकीर्ति का तथा उसके प्रमाण - वार्तिक का बार-बार उल्लेख किया है, परन्तु प्रमाणवार्तिक के भाष्यकार प्रज्ञाकर गुप्त, जो विक्रम की अष्टमी शती के ग्रन्थकार हैं, इनके अथवा इनके ग्रन्थ का कहीं नाम निर्देश नहीं किया, इससे ज्ञात होता है, कि आचार्य हरिभद्र की सत्ता विक्रम की अष्टम शती के मध्य भाग तक रही होगी, जब कि प्रज्ञाकर गुप्त की कारकीर्दी शुरू नहीं हुई थी ।
55
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org