Book Title: Naywad Vibhinna Darshano ke Samanvaya ki Apurva Kala Author(s): Shrichand Choradiya Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf View full book textPage 9
________________ : ४७३ : नयवाद : विभिन्न दर्शनों के समन्वय की श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ व्यावहारिकनय की अपेक्षा फाणित, गुड़, मधुर रस वाला कहा गया है और नैश्चयिकनय की अपेक्षा पांच वर्ण, दो गंध, पाँच रस और आठ स्पर्श वाला कहा गया है। व्यावहारिकनय की अपेक्षा भ्रमर काला है और नैश्चयिकनय से भ्रमर पांच वर्ण, दो गंध, पाँच रस और आठ स्पर्श वाला है। व्यावहारिकनय से तोते के पंख हरे हैं और नैश्चयिकनय से पाँच वर्ण वाले, दो गंध वाले, पाँच रस वाले और आठ स्पर्श वाले होते हैं । इस प्रकार इस अभिलाप द्वारा मजीठ लाल है, हल्दी पीली है, शंख श्वेत है, कुष्ठ (पटवास-कपड़े में सुगंध देने वाली पत्ती) सुगंधित है, मुर्दा (मृतक शरीर) दुगंधित है, नीम (निम्ब) तिक्त (तीखा) है, सूठ कटुय (कड़वा) है, कविठ कषैला है, इमली खट्टी है, खांड मधुर है, वज्र कर्कश (कठोर) है, नवनीत (मक्खन) मृदु (कोमल) है, लोह भारी है, उलुकपत्र (बोरड़ी का पत्ता) हल्का है, हिम (बर्फ) ठंडा है, अग्निकाय उष्ण है और तेल स्निग्ध (चिकना) है। किंतु नैश्चयिकनय से इन सब में पाँच वर्ण, दो गंध, पाँच रस और आठ स्पर्श हैं। व्यावहारिकनय से राख रूक्ष स्पर्श वाली है और नैश्चयिकनय से राख पाँच वर्ण, दो गंध, पाँच रस और आठ स्पर्श वाली है। व्यावहारिकनय लोक-व्यवहार का अनुसरण करता है इसलिए जिस वस्तु का लोक प्रसिद्ध जो वर्ण होता है वह उसी को मानता है । नैश्चयिकनय वस्तु में जितने वर्ण हैं उन सबको मानता है। परमाणु आदि में सब वर्ण, गंध, रस, स्पर्श विद्यमान हैं, इसलिए नैश्चयिकनय इन सबको मानता है। तात्त्विक अर्थ का कथन करने वाले विचार को निश्चयनय कहते हैं यह सिद्धांतवादी दृष्टिकोण है । लोकप्रसिद्ध अर्थ को मानने वाले विचार को व्यवहारनय कहते हैं । विभिन्न दर्शनों के समन्वय का प्रतीक : नयवाद अन्यवादी परस्पर पक्ष और प्रतिपक्ष भाव रखने के कारण एक-दूसरे से ईर्ष्या करते हैं, परन्तु सम्पूर्ण नयों को एक समान देखने वाले आपके शास्त्रों में पक्षपात नहीं है। आपका सिद्धान्त ईर्ष्या से रहित है क्योंकि आप नेगमादि सम्पूर्ण नयों को एक समान देखते हैं। जिस प्रकार बिखरे हुए मोतियों को एक सूत्र में पिरो देने से मोतियों का सुन्दर हार बनकर तैयार हो जाता है । उसी तरह भिन्न-भिन्न नयों को स्याद्वाद रूपी सूत्र में पिरो देने से सम्पूर्ण नय श्रुतप्रमाण कहे जाते हैं । परस्पर विवाद करते हुए वादी लोग किसी मध्यस्थ के द्वारा न्याय किये जाने पर विवाद करना बन्द करके आपस में मिल जाते हैं वैसे ही परस्पर विरुद्ध नय सर्वज्ञ भगवान के शासन की शरण लेकर 'स्यात' शब्द द्वारा विरोध के शान्त हो जाने पर परस्पर मैत्रीभाव से एकत्र रहने लगते हैं, अतः भगवान के शासन के सर्वनयस्वरूप होने से भगवान का शासन सम्पूर्ण दर्शनों से अविरुद्ध है क्योंकि प्रत्येक दर्शन नयस्वरूप है। हे भगवन् ! आप सम्पूर्ण नय रूप दर्शनों को मध्यस्थ भाव से देखते हैं अतः ईर्ष्यालु नहीं है। क्योंकि आप एक पक्ष का आग्रह करके दूसरे पक्ष का तिरस्कार नहीं करते हैं। हे भगवन् ! आपने केवलज्ञान से समस्त पदार्थों को यथार्थ रीति से जान करनय और प्रमाण के द्वारा दुर्नयवाद का निराकरण किया है । नयस्वरूप स्याद्वाद का प्ररूपण करने वाला आपका द्वादशांग प्रवचन किसी के द्वारा भी पराभूत नहीं किया जा सकता । सभी पदार्थ द्रव्याथिकनय की अपेक्षा नित्य और पर्यायाथिकनय की अपेक्षा अनित्य हैं। १ वावहारियणयस्स कालए भमरे, णेच्छइयणयस्स पंचवण्णे दुगंधे पंचरसे अठ्ठफासे पण्णत्ते। -भगवती, शतक १८, उद्देशक ६, सूत्र २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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