Book Title: Naywad Vibhinna Darshano ke Samanvaya ki Apurva Kala
Author(s): Shrichand Choradiya
Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf

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Page 10
________________ || श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ / चिन्तन के विविध बिन्दु : 474 : केवल द्रव्याथिकनय को मानने वाले अद्वैतवादी, कोई मीमांसक और सांख्यवादी सामान्य को ही सत (वाच्य कहते हैं / केवल पर्यायाथिकनय को मानने वाले बौद्ध लोग विशेष को ही सत मानते हैं। केवल नैगमनय का अनुसरण करने वाले न्याय-वैशेषिक परस्पर भिन्न और निरपेक्ष सामान्य और विशेष दोनों को स्वीकार करते हैं। जो एक अंश को लेकर वस्तु के स्वरूप का वर्णन करता है वह वस्तुतः ज्ञाननय है। आचारांग में कहा है कि जिसको सम्यग्ज्ञान अथवा सम्यग्रूप देखो उसी को संयमरूप देखो और जिसको संयमरूप देखो उसी को सम्यगरूप देखो।' सम्यग् जान कर ही-ग्रहण करने वाले अर्थ में और अग्रहणीय अर्थ में भी होता है। उसे इहलोक और परलोक से सम्बन्धित अर्थ के विषय में यत्न करना चाहिए। इस प्रकार जो सद्व्यवहार के ज्ञान के कारण का उपदेश है-वह प्रस्तावतः ज्ञाननय है। भगवान ने साधुओं को लक्ष्य करके कहा कि 'जो सभी नयों के नाना प्रकार की वक्तव्यताओं को सुनकर सब नयों से विशुद्ध है वही साधु-चारित्र और ज्ञान के विषय में अवस्थित है। दृष्टान्त के तौर पर आत्मा के विषय में परस्पर विरोधी तत्त्व मिलते हैं। किसी कहना है कि आत्मा एक है / किसी का कहना है कि आत्मा अनेक हैं। एकत्व और अनेकतत्व का परस्पर विरोध है ऐसी दशा में यह वास्तविक है या नहीं और अगर वास्तविक नहीं है तो उसकी संगति कैसे हो सकती है ? इस बात की खोज नयवाद ने की और कहा कि व्यक्ति की दृष्टि से आत्मा अनेक है और शुद्ध चैतन्य की दृष्टि से एक। इस प्रकार समन्वय करके नयवाद परस्पर विरोधी मालूम पड़ने वाले वाक्यों में एकवाक्यता सिद्ध कर देता है। इसी प्रकार आत्मा के विषय में नित्यत्व, अनित्यत्व, कर्तृत्व, अकर्तृत्व आदि विरोध भी नयवाद द्वारा शान्त किये जा सकते हैं। नय दृष्टि, विचार सरणि और सापेक्ष अभिप्राय-इन सभी शब्दों का एक अर्थ है / नयों के वर्णन से यह स्पष्ट जाना जा सकता है कि किसी भी विषय को लेकर उसका विचार अनेक दृष्टियों से किया जा सकता है / विचार सरणियों के अनेक होने पर भी संक्षेप में उन्हें सात भागों में विभक्त किया गया है / इनमें उत्तरोत्तर अधिक सूक्ष्मता है। एवंभूतनय सबसे अधिक सूक्ष्म है। जिस विचार में अर्थ की प्रधानता हो वह अर्थनय और जिसमें शब्द की प्रधानता हो वह शब्दनय है। ऋजुसत्रनय तक पहले चार अर्थनय हैं और बाकी तीन शब्दनय हैं। इस प्रकार नयवाद व्यावहारिक और सैद्धान्तिक तुला पर अवस्थित है तथा विभिन्न दर्शनों के समन्वय की अपूर्व कला है। परिचय एवं पता श्रीचन्द चोरड़िया न्यायतीर्थ जैनदर्शन में शोधकर्ता, लेश्याकोश, क्रिया कोष आदि के सम्पादक / जैन फिलोसाफिकल सोसायटी १६/सी० डॉवर लेन, कलकत्ता 26 -आयारो 5/3 1 जं सम्मं ति पासह तं मोणं ति पासह / जं मोणं ति पासह तं सम्म ति पासह / 2 णायंमि गिहिअव्वं अगिहिअव्वंमि अत्थंमि / जइ अन्वमेव इइजो, उवएसो सो नओ नाम / सम्वेसि पि नयाणं बहविह वत्तव्वयं निसामित्ता / तं सव्वनयविसुद्ध जं चरणगुणट्ठिओ साहू / -अणुमोगदाराई, उत्तराखं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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