Book Title: Narlok se kinnar lok tak Author(s): Jatanlal Rampuriya Publisher: Z_Ashtdashi_012049.pdf View full book textPage 3
________________ लिए यह एक पत्र एक अभिनव, अनूठी अन्त:सृष्टि का बोध यवनकुमारी देवपुत्र-नन्दिनी क्या आस्ट्रिया-देशवासिनी दीदी ही कराता है। अदृश्य में से झाँकते उसके इस लावण्य को भी हैं। उनके इस वाक्य का क्या अर्थ है कि 'बाणभट्ट केवल भारत निहारना आप न भूलें। में ही नहीं होते। आस्ट्रिया में जिस नवीन 'बाणभट्ट' का __ "छ: वर्षों से आस्ट्रिया के दक्षिणी भाग में निराशा और आविर्भाव हुआ था वह कौन था। हाय, दीदी ने क्या हम लोगों पस्तहिम्मती की जिन्दगी बिता रही हूँ। तुमने युद्ध के घिनौने के अज्ञात अपने उसी कवि प्रेमी की आँखों से अपने को देखने समाचार पढ़े होंगे, लेकिन उसके असली निघृण क्रूर रूप को तुम का प्रयत्न किया था!... दीदी के सिवा और कौन है जो इस का प्रयत्न किया था!... दादा के लोगों ने नहीं देखा। देखते तो मेरी ही तरह तमलोग भी मनाय- रहस्य को समझा दे? मेरा मन उस 'बाणभट्ट' का सन्धान पाने जाति की जययात्रा के प्रति शंकालु हो जाते। ... तूने 'बाणभट्ट को व्याकुल है। मैंने क्यों नहीं दीदी से पहले ही पूछ लिया। मुझे की आत्मकथा' छपवा दी, यह अच्छा ही किया। पुस्तक रूप में। कुछ तो समझना चाहिए था। लेकिन 'जीवन में जो भूल एक बार न सही, पत्रिका रूप में छपी कथा को देख सकी हैं. यही क्या हो जाती है वह हो ही जाती है!' कम है। अब मेरे दिन गिने-चुने ही रह गए हैं।... मैं अब फिर अब दीदी के पत्र पर पुन: ध्यान दें। Immortal spirit of लोगों के बीच नहीं आ सकूँगी। मैं सचमुच संन्यास ले रही हूँ। the dead जिसे आस्ट्रिया की उस वृद्धा ने अपने अंदर realise मैंने अपने निर्जन वास का स्थान चुन लिया है। यह मेरा अन्तिम किया था, उनका पत्र उस realisation की अभिव्यक्ति है। दृश्य पत्र है। 'आत्मकथा' के बारे में तूने एक बड़ी गलती की है। तूने और स्पृश्य के इस छोटे-से जगत के पार किन्नर-लोक तक फैले उसे अपने 'कथामुख' में इस प्रकार प्रदर्शित किया है मानो वह एक ही रागात्मक हृदय के साथ तादात्म्य दीदी को युद्ध की 'आटो-बायोग्राफी' हो। ले भला! तूने संस्कृत पढ़ी है ऐसी ही विभीषिका के बीच शोण नद के प्रत्येक बालुका-कण में बाणभट्ट मेरी धारणा थी, पर यह क्या अनर्थ कर दिया तूने? बाणभट्ट की की आत्मा के अस्तित्व की अनुभूति देता है। वही तादात्म्य आत्मा शोण नद के प्रत्येक बालुका-कण में वर्तमान है। छिः, आस्ट्रिया में भी उनके बाणभट्ट से 'साक्षात्कार' का साक्षी बनता कैसा निर्बोध है तू, उस आत्मा की आवाज तुझे नहीं सुनाई देती? है। सूक्ष्म जगत में दूरी का बन्धन नहीं। बाणभट्ट जन्में और मर ... तुझे इतना प्रमाद नहीं शोभता। गए, यह केवल स्थूल पर टिकी अपारदर्शी आँखों का सत्य है, उस भाग्यहीन बिल्ली ने बच्चों की एक पल्टन खड़ी कर वहाँ का नहीं। आलस्य, प्रमाद और क्षिप्रकारिता से मुक्त दीदी दी है। ... मैं कहाँ तक सम्हालूँ। जीवन में एक बार जो चूक की आत्मा देह के भीतर भी विदेह में रमती थी। वह अन्तर्जगत का आत्मा देह के भीतर भी वित हो जाती है वह हो ही जाती है। इस बिल्ली का पोसना भी एक की उस रागात्मक लय से अनुबन्धित थी जो अद्वैत रूप में सर्वत्र भूल ही थी। तुमसे मेरी एक शिकायत बराबर रही है। तू बात व्याप्त है और इसलिए शोण नदी की लहरों ने उन्हें वह सब कह नहीं समझता। भोले, 'बाणभट्ट' केवल भारत में ही नहीं होते। दिया जो वे हमें नहीं बतलाती और इसीलिए उसके तट पर बिछे इस नर-लोक से किन्नर-लोक तक एक ही रागात्मक हृदय । हदय रजकणों ने अक्षर बन कर उनके लिए अतीत के वे पृष्ठ खोल व्याप्त है। तने अपनी दीदी को कभी समझने की चेष्टा भी की! दिए जिन्हें हम नहीं पढ़ पाते। प्रमाद, आलस्य और क्षिप्रकारिता - तीन दोषों से बच। अब आस्ट्रिया की वह वृद्धा, जिसे मैंने कभी देखा नहीं, पाँच रोज-रोज तेरी दीदी इन बातों को समझाने नहीं आएगी। जीवन दशकों से अनजाने रूप में मेरे मन में छाई रही हैं। 'भोले! की एक भूल - एक प्रमाद - एक असंमजस न जाने कब तक बाणभट्ट केवल भारत में नहीं होते' इस एक वाक्य में उन्होंने एक दग्ध करता रहता है। मेरा आशीर्वाद है कि तू इन बातों से बचा महाग्रन्थ की ही रचना कर दी। महाग्रन्थ या महापुरुष, ये किसी रहे। दीदी का स्नेह। - के" को भी सम्पूर्ण जीवनचर्या नहीं सिखाते। यह दायित्व वे कभी लेते इसे पढ़ कर आचार्यजी के मन में जो प्रतिक्रिया हुई उसका ही नहीं। वे केवल हमारी अन्तश्चेतना को जागृत करते हैं और भी उल्लेख यहाँ आवश्यक "मो याद आया किटीटी उस हमें सूत्र देते हैं, उस रागात्मक हृदय के साथ आत्मानुभूति का, दिन (राजगृह से लौटने के दिन) बहत भाव-विह्वल थीं। उन्होंने जो नर-लोक से किन्नर-लोक तक व्याप्त है। 'बाणभट्ट केवल (राजगह में मिले) एक शृगाल की कथा सनानी चाही थी। उनका भारत में ही नहीं होते'- यह कथन वैसा अपनी वृद्धावस्था को विश्वास था कि (वह) शृगाल बुद्धदेव का समसामयिक था। क्या भूल कर, सत्य की खोज में भटकती, हर व्यक्ति में बाणभट्ट को बाणभट्ट का कोई समसामयिक जन्तु भी उन्हें मिल गया था? देखती, एक जन्तु की आँखों में बुद्ध के संदेश को पढ़ती उस शोण नद के अनन्त बालका-कणों में से न जाने किस कण ने आस्ट्रियन महिला ने मुझे उन अच्छाइयों को, जिनसे प्रकृति ने जड़ बाणभट्ट की आत्मा की यह मर्मभेदी पुकार दीदी को सुना दी थी। और चेतन सबको समान रूप से अलंकृत किया है, देखने की हाय उस वद हृदय में कितना परिताप संचित है। अस्त्रियवर्ष की दृष्टि दी, जिनके पास से मैं उस कथन को याद रखे बिना यों ही निकल जाता। सर आर्थर कोनन डोयल के कथा-साहित्य को ० अष्टदशी / 1370 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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