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जतनलाल रामपुरिया, एडवोकेट
पूर्व का-९ जुलाई २००५ का The Telegraph समाचार पत्र हाथ में आया। सम्पादकीय के नीचे SCRIPTS में Stephen Harold Spender के इस उद्धरण को मैंने पढ़ा
But reading is not idleness... it is passive, receptive side of civilization without which the active and creative world be meaningless. It is immortal spirit of the dead realised within the bodies of the living.
इसे पढ़कर मुझे अपनी किशोरावस्था और स्कूल के दिन याद आए। दशवीं कक्षा तक सुजानगढ़ (राजस्थान) में पढ़ा था। वार्षिक परीक्षा के बाद दो महीने का ग्रीष्मावकाश होता। 'Idleness' की ही मन:स्थिति के साथ उन छुट्टियों में मैंने प्रेमचंद का पूरा साहित्य, जयशंकर प्रसाद का 'कंकाल' और 'चंद्रगुप्त मौर्य', क.मा. मुंशी का 'जय सोमनाथ', आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की 'बाणभट्ट की आत्मकथा' एवं सेक्सटन ब्लेक सीरीज के कुछ जासूसी उपन्यास पढ़े। साथ ही टॉलस्टाय, चेखव और मैक्सिम गोर्की की कुछ कहानियाँ भी। सन् १९५५ में कलकत्ता आया। सन् २००५ के इस मई महीने के साथ पूरे
हुए इन पचास वर्षों में, पढ़ने का शौक होते हुए भी, जो पढ़ सका दैनिक जीवन में कुछ बातें बड़े सहज रूप से सामने आती
वह केवल इतना-सा ही है - काव्य कृतियों में प्रसाद की 'आँसू' हैं - इतने सहज रूप से कि उस पर ध्यान नहीं जाता। What
और 'कामायनी', मैथिलीशरण गुप्त की 'साकेत', is the life that full of care, we have not time to
कन्हैयालालजी सेठिया की 'निष्पत्ति' और 'हेमाणी', आचार्य stand and state - नवमी कक्षा के मेरे पाठ्यक्रम की एक
महाप्रज्ञ की 'ऋषभायण' और गद्य साहित्य में आचार्य महाप्रज्ञ कविता की इन प्रारंभिक पंक्तियों में चित्रित, यंत्र युग की व्यस्तता
का 'चित्त और मन', शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय का 'गृहदाह', में व्यस्त जीवन की विवशता भी बहुत बार चीजों को अनदेखा,
टॉल्स्टाय का 'अन्ना कारेनिना', देवकीनंदन खत्री का 'मृत्यु अनसुना करने का कारण बनती है। बाद में घटी घटनाएँ अथवा
किरण' व 'रक्त मंडल' और सर आर्थर कोनन डोयल का पूरा समय का अन्तराल उनकी गंभीरता का बोध कराता है, ठीक वैसे
कथा-साहित्य। इनके अतिरिक्त गांधी वाङ्मय और पत्रही जैसे कहीं चोट लगने के एक-दो दिन बाद उनकी पीड़ा का
पत्रिकाओं में प्रकाशित कुछ मनन योग्य सामग्री पर भी यदाकदा अनुभव होता है। कभी-कभी, भाग्योदय की वेला में, हमारे पास
दृष्टि पड़ी। बस यही। समय होता है to stand and stare| मनन चिंतन के लिए
Idieness के मनोभावों या मनोरंजन की दृष्टि से पढी अवकाश के ऐसे क्षणों में भी वे बातें बालसखा-सी बिना पूछे
गिनती की कुछ पुस्तकें विचारों को वह पुष्टता प्रदान नहीं करती अचानक आकर गले में बाहें डाले कुछ फुसफुसाती-सी अपना जा क्रमबद्ध आर लक्ष्यप्रारत अध्ययन स प्राप्त. हाता ह, प अर्थ बतलाती हैं। अवचेतन मन से चेतन मन में स्थानांतरित स्टीफेन हेरोल्ड स्पेन्डर के उक्त उद्धरण ने, अब तक जो थोडाहोकर वे फिर अनवरत विचारों को झकझोरती रहती हैं। मन में बहुत मैंने पढ़ा था उसके संचित प्रभाव (cumulative effect) उनकी व्याख्या करने की, उनकी संबद्धता खोजने की विकलता। को मेरे मस्तिष्क में जैसे एक साथ ही जीवित कर दिया और होती है, परन्तु दूसरे छोर पर वे उतने ही तीखेपन से व्याख्यातीत- जिस संदर्भ में मैंने इन पंक्तियों को लिखना प्रारम्भ किया था. सी होने का आभास देती रहती हैं।
उसे किंचित विस्तार देने के लिए विवश भी। __ अपने कुछ ऐसे ही अनुभवों के बारे में मैं बहुत दिनों से It is immortal spirit of the dead realised within the लिखने का सोच रहा था, पर वही कठिनाई मुझे घेरे रही, जिसका bodies of the living - इस पंक्ति के भावों ने पन्द्रह वर्ष की उल्लेख मैंने ऊपर किया है। जो भावगत रहा उसे शब्दगत करने अवस्था में पढ़ी, हिन्दी की प्रतिनिधि पुस्तकों में एक, आचार्य का सिरा जैसे मैं पकड़ नहीं पा रहा था। आज अचानक दो माह हजारीप्रसाद द्विवेदी की उक्त कृति 'बाणभट्ट की आत्मकथा' को
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पुन: एक बार मेरे सामने खोल दिया। इस पुस्तक के प्रकाशन की कल पांच बजे की गाड़ी से कलकत्ते जाकर टाइप करा ला। विचित्र पृष्ठभूमि अकस्मात मेरी स्मृति में उभरी। हिन्दी साहित्य को परसों मुझे इसकी कापियाँ मिल जानी चाहिए।' आचार्य द्विवेदी जी को इसके पीछे एक विदेशी महिला की आस्था, आचार्य जी ने सकुचाते हुए पूछा, "दीदी, कोई पाण्डुलिपि निष्ठा और लगा है, यह कुछ अनहोनी के घटने जैसा लगता है। मिली है क्या?" पुस्तक के कथामुख (भूमिका) और उपसंहार-अभ्यास में जितना
दीदी ने डाँटते हुए कहा, "एक बार पढ़कर तो देख। ... कुछ दृश्य है, उससे कहीं अधिक अदृश्य है। इन पंक्तियों का
तू बड़ा आलसी है। देख रे, बड़े दुःख की बात बता रही हूँ।... सम्बन्ध इन दो प्रकरणों से ही है, मुख्य कथावृत्त से नहीं। उनमें जो
स्त्रियाँ चाहें भी तो आलस्यहीन होकर कहाँ काम कर सकती दृश्य है, पहले उसे सार रूप में रखता हूँ।
है?"... तू... बाद में पछतायेगा। पुरुष होकर इतना आलसी होना मिस कैथगईन आस्ट्रिया के एक सम्भ्रांत ईसाई परिवार की ठीक नहीं। तू समझता है, यूरोप की स्त्रियाँ सब कुछ कर सकती महिला थीं। अपने देश में ही उन्होंने संस्कृत और हिन्दी का बहुत हैं? गलत बात है। हम भी पराधीन हैं। समाज की पराधीनता जरूर अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। भारतीय विद्याओं के प्रति कम है. पर प्रकति की पराधीनता तो हटाई नहीं जा सकती। आज असाम अनुराग के वशाभूत, अड़सठ वर्ष का आयु म व भारत देखती हूँ कि जीवन के ६८ वर्ष व्यर्थ ही बीत गए।" आईं और आठ वर्षों तक यहाँ के ऐतिहासिक स्थानों का अथक
दीदी की आँखें गीली हो गईं। उनका मुख कुछ और कहने भाव से भ्रमण करती रहीं। आचार्य हजारीप्रसाद जी उन्हें दीदी
के लिए व्याकुल था, पर बात निकल नहीं रही थी। न जाने किस कहा करते थे जो उनके अंचल में दादी का एकार्थक है। उस
अतीत में उनका चित्त धीरे-धीरे डूब गया। जब ध्यान भंग हुआ, वृद्धा का भी उन पर पौत्र के समान ही स्नेह था। अपनी कष्ट
तो उनकी आँखों से पानी की धारा बह रही थी और वे उसे पोंछने साध्य यात्राओं के बाद जब वे आचार्य जी के उधर से निकलती
का प्रयत्न भी नहीं कर रही थीं। आचार्य जी ने अनुभव किया तब अपनी पाली हुई बिल्ली के अलावा उनके पास जगह-जगह
कि दीदी किसी बीती हुई घटना का ताना-बाना सुलझा रही हैं। से इकट्ठी की हुई बहुत-सी पुरातन चीजें होतीं। उनका इतिहास बताते समय उनका चेहरा श्रद्धा से गद्गद् हो जाता उनकी छोटी
आचार्य जी ने कागजों को पढ़ा। शीर्षक के स्थान पर मोटेछोटी नीली आँखें भावों के उद्रेकवश गीली हो जातीं। उनकी
मोटे अक्षरों में लिखा था 'अथ बाणभट्ट की आत्मकथा लिख्यते'। बालसुलभ निर्मलता भोलेपन की सीमा को छूती थी। उसका
पढ़ने के बाद आचार्य जी को लगा कि दीर्घ काल के बाद संस्कृत लाभ उठा कर कुछ लोग उनके बहुमूल्य संग्रह में से कुछ चीजें
साहित्य में एक अनूठी चीज प्राप्त हुई है। आचार्य जी को दबा लेते। उन्हें उसका पता भी नहीं चलता।
कलकत्ता में एक सप्ताह लग गया। इस बीच दीदी बिना पता
ठिकाना दिये काशीवास करने चली गई। दो साल तक वह कथा __ भारत और भारतीय संस्कृति के साथ उनका गहन लगाव,
यूँ ही पड़ी रही। एक दिन अचानक मुगलसराय स्टेशन पर गाड़ी किसी पूर्व जन्म के संस्कारों से अनुबन्धित-सा लगता था। जब
बदलते हुए आचार्य जी को वे फिर मिल गईं। आचार्य जी को वे ध्यानस्थ होती तो उनका वलीकुंचित मुखमंडल बहुत ही
देख कर जरा भी प्रसन्न नहीं हुई। केवल कुली को डाँटकर कहती आकर्षक लगता और वे साक्षात सरस्वती-सी जान पड़ती।
रही "संभाल के ले चल, तू बड़ा आलसी है।" आचार्य जी ने समाधि के उपरान्त उनकी बातों में अनूठी दिव्यता होती।
उन्हें कहा, 'दीदी वह आत्मकथा मेरे ही पास पड़ी है।' दीदी बड़े अंतिम बार वे राजगृह से लौटीं। द्विवेदी जी से मिलीं और
गुस्से में थीं। रुकी नहीं। गाड़ी में बैठकर उन्होंने एक कार्ड बोली “देख, इस बार शोण नद के दोनों किनारों की पैदल यात्रा
__ फेंककर कहा, 'मैं देश जा रही हूं। ले, मेरा पता है। ले भला।' कर आई हूँ। थकी हुई हूँ। तुम कल आना।" दूसरे दिन आचार्य
पुस्तक के प्रकाशन के बीच आचार्य जी को आस्ट्रिया से जी जब उनके स्थान पर पहुंचे, तब नौकर ने बतलाया कि उस
दीदी का पत्र मिला। वह उपसंहार में संकलित है। इस पत्र से रात वे दो बजे तक चुपचाप बैठी रहीं और फिर एकाएक अपनी
कथा का रहस्य और भी घना होता है। साथ ही उसमें लक्षित टेबल पर आकर लिखने लगीं। रात भर लिखती रहीं। लिखने
दृश्य के ऊपर अदृश्य की अवांछित छाया मन में टीस-सी पैदा में इतनी तन्मय रहीं की दूसरे दिन आठ बजे तक लालटेन बुझाए
करती है। उस छाया की, उस अदृश्य की अनुभूति आपको भी बिना ही लिखती रहीं। फिर टेबल पर ही सिर रख कर सो गई
हो, इस दृष्टि से उस पत्र को अंशत: नीचे उद्धृत कर रहा हूँ। मगर और अपराह्न तीन बजे तक सोई रहीं। अब वे स्नान कर के चाय
उद्देश्य केवल उतना ही नहीं। पत्र का कलेवर जितना छोटा है, पीने जा रही थीं। आचार्य जी को देखकर बहुत प्रसन्न हुई और
कथ्य उतना ही गम्भीर और बहुमूल्य है। अतीत के अतल गह्वर बोली 'शोण-यात्रा में मिली सामग्री का हिन्दी रूपान्तर मैंने कर
से अवतरण लेती कोई दिव्यात्मा जैसे बतला रही है कि किस लिया है।... आनन्द से इसका अंग्रेजी में उथला करा ले... और
तरह जगत में सब एक ही धूव पर स्थित हैं। ऊँचा जीवन-दर्शन
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लिए यह एक पत्र एक अभिनव, अनूठी अन्त:सृष्टि का बोध यवनकुमारी देवपुत्र-नन्दिनी क्या आस्ट्रिया-देशवासिनी दीदी ही कराता है। अदृश्य में से झाँकते उसके इस लावण्य को भी हैं। उनके इस वाक्य का क्या अर्थ है कि 'बाणभट्ट केवल भारत निहारना आप न भूलें।
में ही नहीं होते। आस्ट्रिया में जिस नवीन 'बाणभट्ट' का __ "छ: वर्षों से आस्ट्रिया के दक्षिणी भाग में निराशा और आविर्भाव हुआ था वह कौन था। हाय, दीदी ने क्या हम लोगों पस्तहिम्मती की जिन्दगी बिता रही हूँ। तुमने युद्ध के घिनौने
के अज्ञात अपने उसी कवि प्रेमी की आँखों से अपने को देखने समाचार पढ़े होंगे, लेकिन उसके असली निघृण क्रूर रूप को तुम
का प्रयत्न किया था!... दीदी के सिवा और कौन है जो इस
का प्रयत्न किया था!... दादा के लोगों ने नहीं देखा। देखते तो मेरी ही तरह तमलोग भी मनाय- रहस्य को समझा दे? मेरा मन उस 'बाणभट्ट' का सन्धान पाने जाति की जययात्रा के प्रति शंकालु हो जाते। ... तूने 'बाणभट्ट
को व्याकुल है। मैंने क्यों नहीं दीदी से पहले ही पूछ लिया। मुझे की आत्मकथा' छपवा दी, यह अच्छा ही किया। पुस्तक रूप में।
कुछ तो समझना चाहिए था। लेकिन 'जीवन में जो भूल एक बार न सही, पत्रिका रूप में छपी कथा को देख सकी हैं. यही क्या हो जाती है वह हो ही जाती है!' कम है। अब मेरे दिन गिने-चुने ही रह गए हैं।... मैं अब फिर अब दीदी के पत्र पर पुन: ध्यान दें। Immortal spirit of लोगों के बीच नहीं आ सकूँगी। मैं सचमुच संन्यास ले रही हूँ। the dead जिसे आस्ट्रिया की उस वृद्धा ने अपने अंदर realise मैंने अपने निर्जन वास का स्थान चुन लिया है। यह मेरा अन्तिम किया था, उनका पत्र उस realisation की अभिव्यक्ति है। दृश्य पत्र है। 'आत्मकथा' के बारे में तूने एक बड़ी गलती की है। तूने और स्पृश्य के इस छोटे-से जगत के पार किन्नर-लोक तक फैले उसे अपने 'कथामुख' में इस प्रकार प्रदर्शित किया है मानो वह एक ही रागात्मक हृदय के साथ तादात्म्य दीदी को युद्ध की 'आटो-बायोग्राफी' हो। ले भला! तूने संस्कृत पढ़ी है ऐसी ही विभीषिका के बीच शोण नद के प्रत्येक बालुका-कण में बाणभट्ट मेरी धारणा थी, पर यह क्या अनर्थ कर दिया तूने? बाणभट्ट की की आत्मा के अस्तित्व की अनुभूति देता है। वही तादात्म्य आत्मा शोण नद के प्रत्येक बालुका-कण में वर्तमान है। छिः, आस्ट्रिया में भी उनके बाणभट्ट से 'साक्षात्कार' का साक्षी बनता कैसा निर्बोध है तू, उस आत्मा की आवाज तुझे नहीं सुनाई देती? है। सूक्ष्म जगत में दूरी का बन्धन नहीं। बाणभट्ट जन्में और मर ... तुझे इतना प्रमाद नहीं शोभता।
गए, यह केवल स्थूल पर टिकी अपारदर्शी आँखों का सत्य है, उस भाग्यहीन बिल्ली ने बच्चों की एक पल्टन खड़ी कर
वहाँ का नहीं। आलस्य, प्रमाद और क्षिप्रकारिता से मुक्त दीदी दी है। ... मैं कहाँ तक सम्हालूँ। जीवन में एक बार जो चूक
की आत्मा देह के भीतर भी विदेह में रमती थी। वह अन्तर्जगत
का आत्मा देह के भीतर भी वित हो जाती है वह हो ही जाती है। इस बिल्ली का पोसना भी एक
की उस रागात्मक लय से अनुबन्धित थी जो अद्वैत रूप में सर्वत्र भूल ही थी। तुमसे मेरी एक शिकायत बराबर रही है। तू बात
व्याप्त है और इसलिए शोण नदी की लहरों ने उन्हें वह सब कह नहीं समझता। भोले, 'बाणभट्ट' केवल भारत में ही नहीं होते।
दिया जो वे हमें नहीं बतलाती और इसीलिए उसके तट पर बिछे इस नर-लोक से किन्नर-लोक तक एक ही रागात्मक हृदय ।
हदय रजकणों ने अक्षर बन कर उनके लिए अतीत के वे पृष्ठ खोल व्याप्त है। तने अपनी दीदी को कभी समझने की चेष्टा भी की! दिए जिन्हें हम नहीं पढ़ पाते। प्रमाद, आलस्य और क्षिप्रकारिता - तीन दोषों से बच। अब आस्ट्रिया की वह वृद्धा, जिसे मैंने कभी देखा नहीं, पाँच रोज-रोज तेरी दीदी इन बातों को समझाने नहीं आएगी। जीवन दशकों से अनजाने रूप में मेरे मन में छाई रही हैं। 'भोले! की एक भूल - एक प्रमाद - एक असंमजस न जाने कब तक बाणभट्ट केवल भारत में नहीं होते' इस एक वाक्य में उन्होंने एक दग्ध करता रहता है। मेरा आशीर्वाद है कि तू इन बातों से बचा महाग्रन्थ की ही रचना कर दी। महाग्रन्थ या महापुरुष, ये किसी रहे। दीदी का स्नेह। - के"
को भी सम्पूर्ण जीवनचर्या नहीं सिखाते। यह दायित्व वे कभी लेते इसे पढ़ कर आचार्यजी के मन में जो प्रतिक्रिया हुई उसका ही नहीं। वे केवल हमारी अन्तश्चेतना को जागृत करते हैं और भी उल्लेख यहाँ आवश्यक "मो याद आया किटीटी उस हमें सूत्र देते हैं, उस रागात्मक हृदय के साथ आत्मानुभूति का, दिन (राजगृह से लौटने के दिन) बहत भाव-विह्वल थीं। उन्होंने जो नर-लोक से किन्नर-लोक तक व्याप्त है। 'बाणभट्ट केवल (राजगह में मिले) एक शृगाल की कथा सनानी चाही थी। उनका भारत में ही नहीं होते'- यह कथन वैसा अपनी वृद्धावस्था को विश्वास था कि (वह) शृगाल बुद्धदेव का समसामयिक था। क्या भूल कर, सत्य की खोज में भटकती, हर व्यक्ति में बाणभट्ट को बाणभट्ट का कोई समसामयिक जन्तु भी उन्हें मिल गया था? देखती, एक जन्तु की आँखों में बुद्ध के संदेश को पढ़ती उस शोण नद के अनन्त बालका-कणों में से न जाने किस कण ने आस्ट्रियन महिला ने मुझे उन अच्छाइयों को, जिनसे प्रकृति ने जड़ बाणभट्ट की आत्मा की यह मर्मभेदी पुकार दीदी को सुना दी थी। और चेतन सबको समान रूप से अलंकृत किया है, देखने की हाय उस वद हृदय में कितना परिताप संचित है। अस्त्रियवर्ष की दृष्टि दी, जिनके पास से मैं उस कथन को याद रखे बिना यों ही
निकल जाता। सर आर्थर कोनन डोयल के कथा-साहित्य को
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________________ पढ़ते समय उस कथन की गहनता का मुझे और भी तीव्रता से दोषपूर्ण और नकारात्मक व्यवस्था का वह पक्ष सामने आता है अनुभव हुआ और मुझे लगा कि हितोपदेश की बातें केवल जो उसे अपराध करने के लिए विवश करता है। नीतिग्रंथों में ही नहीं, जासूसी कहानियों में भी पढ़ी जा सकती हैं। चार उपन्यास और छप्पन कहानियों में, अधिकांश जिनमें प्रकाश की किरणें परावर्तित होती हैं ताकि कहीं से कुछ उजाला बहत लम्बी हैं. न कहीं श्लीलता का उल्लंघन है न अपराधी के अंधकार में झाँकता रहे। मन के ब्रह्मांड में भी सद्विचारों के तारे प्रति हिंसक भावों का उद्रेक। अपराधों की पृष्ठभूमि पर भी ऐसा टिम-टिम करते हैं और इसलिए, अन्तरिक्ष की तरह, अन्तर का साफ-सुथरा सृजन कैसे संभव हुआ? कर्म-नियति के भी एक-न-एक कोना सदा आलोकित रहता है - सर डोयल की स्वत:स्फूर्त और स्वचालित अनुशासन के अधीन, दुष्कर्म स्वयं कहानियाँ मुझे यह कहती-सी प्रतीत हुई। अपनी उस अनुभूति को / ही कर्ता को सजा देते हैं - दर्शन-ग्रन्थों का यह सार जासूसी भी आज व्यक्त करता हूँ। कहानियों में कैसे प्रवाहित हुआ? शरलॉक होम्स के साहसिक सर आर्थर कोनर डोयल विश्व के सर्वाधिक पढ़े जाने वाले और संकटपूर्ण कारनामों को पढ़ते समय मुझे बार-बार ऐसा लेखकों में से एक हैं। लगभग सभी देशों की प्रमुख भाषाओं में लगता रहा कि उसके रचनाकार सर आर्थर कोनन डोयल भी उनकी रचनाओं का अनुवाद हुआ है। गहन षडयंत्रों की पृष्ठभूमि भाव-जगत की उसी प्रकम्पन-श्रृंखला से बंधे थे, बाणभट्ट से दीदी पर बुना सशस्त कथानक, रोमांचक परिस्थितियाँ, अविरल तक जिसका संचरण था और उन सब तक है जो नर-लोक से प्रवाह, बाँध लेने वाली भाषा, चुस्त संवाद और अमलिन किन्नर-लोक तक एक ही रागात्मक संवेदना का अनुभव करते अभिव्यक्ति - इन सबके सम्मिलित स्वरों ने उनके साहित्य को हैं और उस रागात्मकता में, दीदी की तरह, राग-मुक्त होने की वह ऊँचाई दी है जहाँ पहुँचकर लेखनी तूलिका बनती है और ध्वनि सुनते हैं। जिस तरह बाणभट्ट केवल भारत में ही नहीं होते, लेखन एक जीवंत चित्र-कृति की आकृति लेता है। अपराध उसी तरह हितोपदेश भी केवल ज्ञान-ग्रन्थों में ही सीमित नहीं हैं। जगत की जटिल गुत्थियाँ उनकी कथाओं के विषय हैं और उन्हें वह सियार जो दीदी को बुद्ध का समसामयिक लगा था, उनके सुलझाने में मन और मस्तिष्क की अतल गहराइयों तक उलझे संदेश को सर डोयल की लेखनी में भी डाल देता है! शरलॉक होम्स नाम के गुप्तचर उन कथाओं के नायक। सर कहीं पढ़ा था - 'उस मक्खी का भाग्य कोई कैसे बदले जो डोयल के उपन्यासों और कहानियों में एक ओर हिंसा और गन्दगी पर ही बैठती है।मध से परिचय ही उसका भाग्य बदल प्रतिहिंसा, घात और प्रतिघात व प्रहार और प्रतिशोध के दुर्दान्त ___ सकता है। 'बाणभट्ट केवल भारत में ही नहीं होते' - इसका कथ्य चक्रव्यूह हैं तो दूसरी ओर अपराधों के प्रति निर्लिप्त और / उसके पंखों को फूलों की ओर उड़ना सिखाता है और उसे पराग उदासीन बने रहकर उन्हें देखते रहने की प्रवृत्ति के साथ समझौता की पहचान देता है। दीदी की यह बात हमें बतलाती है कि जड़ न कर पाने की शरलॉक होम्स की विवशता है। और चेतन का समन्वित रूप ही पूर्ण सत्य है, पर उसे देख पाने भय और आतंक, उत्पीड़न और अत्याचार एवं कपट और। की क्षमता चक्षुओं में नहीं, हमारे निरामय मनोभावों में है और उन क्रूरता की शतरंज बिछाए माफिया वृत्ति के जीवित मोहरे और क्षणों में है जब हमें अवकाश होता है to stand and stare, उन्हें मात देने के लिए कटिबद्ध अपने प्राण हथेली में लिए उनके जब हमे अवकाश होता है to stand and pick up all that पीछे लगे शरलॉक होम्स! फिर भी हजारों पृष्ठों के साहित्य में is good around us, जब हमें अवकाश होता है to stand दो-चार स्थलों को छोड़ कर कथा-नायक होम्स द्वारा न कहीं and see a lovely garden in a single rose और जब हथियारों का उपयोग हुआ है, न ही कहीं हाथों का। अपराध और हमें अवकाश होता है to stand and realise the immortal जुड़े घटनाक्रम पर वे अपने घर में बैठे विभिन्न कोणों से चिन्तन spirit of the dead within us. करते हैं, सुरागों को जांचते-परखते हैं और art of deduction अतीत की अमृत ऊर्जा के स्पन्दनों की अनुभूति हमें वहाँ की अपनी अद्भुत क्षमता के बल पर उन सूत्रों तक पहुंचते हैं ले चलती है जहाँ सत्य है. शिव है. सन्दर है, जिन्हें दीदी शोण जो अपराधी के मन्तव्य और उसकी प्रणाली को स्पष्ट करते हैं। नदी के बालका कणों से लेकर आस्टिया तक बाणभट के रूप अन्तत: जब वे अपराधी को कानून के सुपुर्द करते हैं, या कुछ में खोजा करती थीं और देख भी लेती थीं। कथाओं में जब वह मरता है तो जैसे अपने कर्मों का ही फल भोग रहा होता है। होम्स के मन में अपराधी के प्रति कोई द्रोह, दुर्भाव नहीं होता इसलिए एक प्रतिद्वन्द्वी द्वारा पराजित किए जाने का भाव अपराधी को पीड़ा नहीं देता। उसे अपने दुष्कर्मों का, अपने पापों का बोध होता है या फिर आदमी द्वारा बनाई गई 0 अष्टदशी / 1380