Book Title: Nari Dharm Evam Sanskruti Ki Sajag Prahari Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 6
________________ भारत के गिने-चुने कवियों में से एक माने जाते हैं और उनकी कविता की भाँति उनकी जीवन-गाशा भी समान रूप से मूल्यवान है। " कविता की बदौलत लाखों का धन प्राता, किन्तु माघ का यह हाल कि इधर आया और उधर दे दिया। अपनी उदारवत्ति के कारण वह जीवन भर गरीब ही बने रहे। कभी-कभी तो ऐसी स्थिति भी आ जाती कि आज तो खाने को है, किन्तु कल क्या होगा, कुछ पता नहीं। कभी-कभी तो उसे भूखा ही रहना पड़ता। किन्तु, उस माई के लाल ने जो कुछ भी प्राप्त किया, उसे देने से कभी भी इन्कार नहीं किया। लोकोक्ति है--'माघ का महत्त्व पाने में नहीं, देने में है।' एक बार वह एकान्त में अपनी बैठक में बैठे थे और अपनी एक रचना को परिमार्जित कर रहे थे। इसी बीच जेट की उस कड़कड़ाती हुई गर्मी में, दोपहर के समय, एक गरीब ब्राह्मण उनके पास आया। ज्योंही वह ब्राह्मण पाया और नमस्कार करके सामने खड़ा हुआ कि इनकी दृष्टि उसकी दीनता को भेद गई। उसके चेहरे पर गरीबी की छाया पड़ रही थी और थकावट तथा परेशानी स्पष्ट झलक रही थी। कवि ने ब्राह्मण से पूछा-क्यों भैया ! इस धूप में आने का कैसे कष्ट किया ? ब्राह्मण-जी, और तो कोई बात नहीं है, एक आशा लेकर आपके पास आया हूँ। मेरे यहाँ एक कन्या है। वह जवान हो गई है। उसके विवाह की व्यवस्था करनी है, किन्तु साधन कुछ भी नहीं है। अर्थाभाव के कारण मैं बहुत उद्विग्न हूँ। आपका नाम सुनकर बड़ी दूर से चला आ रहा हूँ। आपकी कृपा से मुझ गरीब की कन्या का भाग्य बन जाए, यही याचना है। माघ कवि ब्राह्मण की दीनता को देखकर विचार में डूब गए। उनका विचार में पड़ जाना स्वाभाविक ही था, क्योंकि उस समय उनके पास एक शाम खाने को भी कुछ नहीं बचा था। परन्तु एक गरीब ब्राह्मण आशा लेकर पाया है। अत: कवि की उदार भावना दबी न रह सकी। उसने ब्राह्मण को बिठलाया और आश्वासन देते हुए कहा"अच्छा भैया, बैठो, मैं अभी प्राता हूँ।" माघ घर में गए। इधर-उधर देखा, तो कुछ न मिला। अब उनके पश्चात्ताप का कोई पार न रहा। सोचने लगे--"माघ ! आज क्या तू घर आए याचक को खाली हाथ लौटा देगा? नहीं, आज तक तूने ऐसा नहीं किया है। तेरी अन्तरात्मा यह सहन नहीं कर सकती। किन्तु, किया क्या जा सकता है ? कुछ हो देने को तब तो न?" _माघ विचार में डबे इधर-उधर देख रहे थे । कुछ उपाय नहीं सूझ रहा था। आखिर एक किनारे सोई हुई पत्नी की ओर उनकी दृष्टि गई। पत्नी के हाथों में सोने के कंगन चमक रहे थे। सम्पत्ति के नाम पर वे ही कंगन उसकी सम्पत्ति थे। __माघ ने सोचा--"कौन जाने, मांगने पर यह दे, या न दे ! इसके पास और कोई धन-सम्पत्ति तो है नहीं, कोई अन्य आभूषण भी नहीं। यही कंगन है, तो शायद देने से इन्कार कर दे ! संयोग की बात है कि यह सोयी हुई है। अच्छा अवसर है। क्यों न चुपचाप एक कंगन निकाल लिया जाए !" माध, पत्नी के हाथ का एक कंगन निकालने लगे। कंगन सरलता से खुला नहीं और जोर लगाया तो थोड़ा झटका लग गया। पत्नी की निद्रा भंग हो गई। वह चौंक कर जगी और अपने पति को देखकर बोली--आप क्या कर रहे थे? माघ--कुछ नहीं, एक सामान टटोल रहा था। पत्नी-नहीं, सच कहिए। मेरे हाथ में झटका किसने लगाया ? माघ-झटका तो मुझी से लगा था। पत्नी--तो आखिर बात क्या है ? क्या आप कंगन खोलना चाहते थे? माघ--हाँ, तुम्हारा सोचना सही है। पत्नी--लेकिन, किसलिए? पन्ना समिक्खए धम्म www.jainelibrary.org Jain Education Intemational For Private & Personal Use OnlyPage Navigation
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