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જ્ઞાનાંજલિ नागज्जुणिया इतना ही लिखा है। अतः ये दोनों चूर्णीकार अलग अलग ज्ञात होते हैं। सूत्रकृताङ्गचूर्णीमें जिनभद्रगणीके विशेषावश्यकभाष्यकी गाथाओं एवं स्वोपज्ञ टीकाके सन्दर्भ अनेक स्थान पर उद्धृत किये गये हैं, इससे इस चूर्णीकी रचना श्रीजिनभद्रगणिके बादकी है। परन्तु आचाराङ्गचूर्नामें जिनभद्रगणिके कोई ग्रन्थका उल्लेख नहीं है, इस कारण इस चूर्णी की रचना श्रीजिनभद्रगणिके पूर्वकी होनेका सम्भव अधिक है ।
भगवतीसूत्रचूर्णीमें श्रीजिनभद्रगणीके विशेषणवतीग्रन्थकी गाथाओंके उद्धरण होनेसे, और कल्पचूर्णीमें साक्षात् विसेसावस्सगभासका नाम उल्लिखित होनेसे इन दोनों चूर्णीयों की रचना निश्चित रूपसे श्रीजिनभद्रगणिके बादकी है ।
दशासूत्रचूर्णीमें केवलज्ञान-केवलदर्शनविषयक युगपदुपयोगादिवादका निर्देश होनेसे यह चूर्णी भी श्रीजिनभद्रगणीके बादकी है ।
आवश्यकचूीके प्रणेताका नाम चूर्णीकी कोई प्रतिमें प्राप्त नहीं है । श्रीसागरानन्दसूरि महाराजने अपने सम्पादनमें इसको जिनदासगणिमहत्तरकृत बतलाई है। प्रतीत होता है कि - आपका यह निर्देश श्रीधर्मसागरोपाध्यायकृत तपागच्छीय पट्टावलीके उल्लेखको देख कर है, किन्तु वास्तवमें यह सत्य नहीं है। अगर इसके प्रणेता जिनदासगणि होते तो आप इस प्रासादभूत महती चूर्णीमें जिनभद्रगणीके नामका या विशेषावश्यकभाष्यकी गाथाओंका जरूर उल्लेख करते । मुझे तो यही प्रतीत होता है कि इस चूर्णीकी रचना जिनभद्रगणिके पूर्वकी और नन्दीसूत्ररचनाके बादकी है । दशवैकालिकचूर्णी (वृद्धविवरण) में और व्यवहारचूर्णीमें श्रीजिनभद्रगणि की कोई कृतिका उद्धरण नहीं है, अतः ये चूणीयाँ भी जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणके पूर्वकी होनी चाहीए। जम्बूद्वीपकरणचूर्णी जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिकी चूर्णी मानी जाती है, किन्तु वास्तवमें यह जम्बूद्वीपके परिधि-जीवा-धनुःपृष्ठ आदि आठ प्रकारके गणितको स्पष्ट करनेवाले किसी प्रकरणकी चूर्णी है। वर्तमान इस चूर्णीमें मूल प्रकरणकी गाथाओं के प्रतीक मात्र चूर्णीकारने दिये हैं, अतः कुछ गाथाओंका पता जिनभद्रीय बृहत्क्षेत्रसमासप्रकरणसे लगा है, किन्तु कितनीक गाथाओंका पता नहीं चला है ? इस चूर्णीमें जिनभद्रीय बृहरक्षेत्रसमासकी गाथायें भी उद्धृत नज़र आती हैं, अतः यह चूर्णी उनके बादकी है।
यहां पर चूर्णीयोंके विविध उल्लेखोंको लक्ष्यमें रख कर चूर्णीकारों के विषयमें जो कुछ निवेदन करनेका था, वह करनेके बाद अंतमें यह लिखना प्राप्त है कि-प्रकाश्यमान इस नन्दीसूत्रचूगीके
१. “ श्रीवीरात् १०५५ वि. ५८५ वर्षे याकिनीसूनुः श्रीहरिभद्रसूरिः स्वर्गभाक् । निशीथ-बृहस्कल्पभाध्याऽऽवश्यकादिचूर्णिकाराः श्रोजिनदासमहत्तरादयः पूर्वगतश्रुतधरश्रीप्रद्युम्नक्षमणादिशिष्यत्वेन श्रीहरिभद्रप्रितः प्राचीना एव यथाकालभाविनो बोध्याः । १११५ श्रीजिनभद्रगणियुगप्रधानः । अयं च जिनभद्रीयध्यानशतककाराद्भिनः सम्भाव्यते । " इण्डियन एण्टीक्वेरी पु. ११. पृ. २५३ ॥
[सिरिदेववायगविरइयं “ नंदीसुतं" मेंसे उद्धृत. ]
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