Book Title: Nandisutra ka Vaishishtya Author(s): Atmaram Maharaj Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 3
________________ 371 नन्दीसूत्र का वैशिष्ट्य मनः पर्यवज्ञान के अधिकार का गाठ नन्दीसूत्र और प्रज्ञापना सूत्र (पद २१ सूत्र २७३ ) में समान रूप से ही आता है। भेद केवल इतना ही है कि यह प्रज्ञापना सूत्र में आहारक शरीर के प्रसंग में वर्णित है। इस सूत्र में मनः पर्यवज्ञान के द्रव्य, क्षेत्र, काले और भाव रूप से जो चार भेद प्रदर्शित किए गए हैं, इनका संबंध भगवती सूत्र (शतक ८, उद्देशक २ ) से मिलता है। केवलज्ञान का वर्णन जिस रूप से हम यहां पाते हैं, वह भी प्रज्ञापना सूत्र (पद ९ सूत्र ७०८) से उद्धृत किया ज्ञात होता है । द्रव्य, काल, भावरूप से केवलज्ञान के जो चार भेद प्रतिपादित किए हैं, वे भी भगवती सूत्र (शतक ८, उद्देशक २ ) से संकलित हैं। क्षेत्र, मतिज्ञान के विषय का मूल (बीजरूप) स्थानांग सूत्र स्थान २, उद्देशक १, सूत्र ७१ में साधारण रूप से आ चुका है, किन्तु उसके अट्ठाईस भेदों का वर्णन समवायांग सूत्र में मिलता है। संभव है कि नन्दीसूत्र में मतिज्ञान का जो सविस्तर वर्णन आया है, वह किसी अन्य (अधुना अप्राप्य ) जैन आगम से संगृहीत हुआ हो। मतिज्ञान के भी चारों (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) 'भेद भगवती सूत्र( शतक ८, उद्देशक २ ) से उद्धृत किए हुए ज्ञात होते हैं। किन्तु भगवती सूत्र में केवल 'पास' है और नन्दी में 'न पासइ' ऐसा पाठ आता है, शेष पाठ समान है। श्रुतज्ञान का विषय भी यहां भगवतीसूत्र (शतक २५, उद्देशक ३) से उद्धृत किया गया है "कइविहे णं भंते! गणिपिडए प. गोयमा ! दुवालसंगे गणिपिडए प. त. - आयारो जाव दिट्ठवाओ से किं तं आयारो ? आयारे णं समणाणं णिग्गंथागं आयारगोय. एवं अंगपरूवणा भणियव्वा, जहा नंदीए जाव सुत्तस्थो खलु पढमो, बीओ निज्जुत्तिमीसिओ भणिओ । तइओ य निरवसेसो, एस विही होइ अणुओगे । 1 । । " इन सबके अतिरिक्त नन्दी सूत्र के कितने ही स्थल स्थानांग सूत्र, अनुयोगद्वारसूत्र, दशाश्रुतस्कन्धसूत्र आदि अनेक आगमग्रन्थों के कितने ही स्थानों से मिलते हैं। इस प्रकार की समानता से यह बात भलीभांति प्रमाणित हो जाती है किं देववाचक क्षमाश्रमण का यह ग्रन्थ विविध आगमों से संकलित है, निर्मित नहीं है। नन्दी सूत्र की प्रामाणिकता देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ने भगवान महावीर स्वामी के ९८० वर्ष पश्चात् अर्थात् ४५४ ई. (५११ वि.) में वलभी नगरी में साधुसंघ को एकत्र किया। तब तक सारा आगम कण्ठस्थ ही रखा जाता था । देववाचक क्षमाश्रमण के प्रयत्न से साधु संघ के उस महान् अधिवेशन में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य यह हुआ कि तब तक कण्ठस्थ चले आते आगमों को साधुओं ने लिपिबद्ध कर लिया। एक स्थान पर बैठकर एक ही समय में साधुओ द्वारा लिखे होने के कारण हम आज भी इन विभिन्न अंगों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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