Book Title: Nandisutra ka Vaishishtya Author(s): Atmaram Maharaj Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 2
________________ 370 जिनवाणी- जैनागम साहित्य विशेषाङ्क आनन्दजनक होने के कारण ज्ञान का वाचक है, न कि साहित्य में आए हुए नन्दी या नान्दी का । भावनन्दी शब्द पंचविध ज्ञान का ही बोधक है, ये पांच ज्ञान क्षयोपशम वा क्षायिकभाव के कारण से उत्पन्न होते हैं। जैसे - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान व मनः पर्यवज्ञान ये चारों ज्ञान क्षयोपशम भाव पर निर्भर हैं, और केवलज्ञान क्षायिक भाव से उत्पन्न होता है। जब ज्ञानावरणीय कर्म, दर्शनावरणीय कर्म, मोहनीय कर्म और अन्तराय कर्मों की प्रकृतियाँ क्षीण हो जाती हैं तब आत्मा केवलज्ञान और केवलदर्शन से युक्त अर्थात् सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाता है। इस नन्दीसूत्र में उन पांच ज्ञानों का विषय सविस्तर प्रतिपादित किया गया है। यह संकलित है या रचित? आचार्य श्री देववाचक क्षमाश्रमण ने आगमग्रन्थों से मंगलरूप पंच ज्ञानों के प्ररूपक श्री नन्दीसूत्र का उद्धार किया है, जैसे कि उपाध्याय समयसुन्दरजी लिखते हैं- "एकादशांग गणधरभाषित हैं। उन अंगशास्त्रों के आधार पर क्षमाश्रमण ने उत्कालिक आदि आगमों का उद्धार किया है।'' (द्रष्टव्य, समाचारीशतक, दूसरा प्रकाश, आगमस्थापनाधिकारपत्र ७७, आगमोदय समिति) नन्दीशास्त्र जिन जिन आगमों से संकलित है, उनकी चर्चा नीचे की जाती है। नन्दीसूत्र के मूल की गवेषणा करते हुए प्रथम स्थानांग सूत्र के द्वितीय स्थान के प्रथम उद्देशक के ७१ वें सूत्र पर दृष्टि जाती है। वहां नन्दीसूत्र के लिये निम्नोक्त आधार मिलता है। देखें वह पाठ"दुविहे नाणे पण्णचे, तंजहा- पच्चक्खे चेव, परोक्खे चेव । पच्चक्खे नाणे दुविहे पं. तं. केवलनाणे चेव 1. नोकेवलनाणे वेव 21 केवलनाणे दुविहे प. तं. - भवत्थकेवलनाणे चेव, सिद्धकेवलनाणे चेव । भवत्थकेवलनाणे दुविहे पं. त.सजोगिभवत्थकेवलनाणे चेव, अजोगिभवत्थकेवलनाणे चेव । राजोगिभवत्थकेवलनाणे दुविहे पं. तं. - पढमसमयसजोगिभवत्थकेवलनाणे चेव, अपढमसमयसजोगिभवत्थकेवलनाणे चेव अहवा - चरिमसमयसजोगिभवत्थकेवलनाणे चेव. अचरिमसमयस जोगिभवत्थकेवलनाणे चेव । एवं अजोगिमवत्थकेवलनाणे वि सिद्धकेवल नाणे दुविहे पं. नं. -अणंतरसिद्धकेवलनाणे चेव परंपरसिद्धकेवलनाणे चेव अनंतरसिद्ध केवलनाणे दुविहे पं. तं. एक्काणंतरसिद्ध केवलनाणे चेव, अणेक्काणंतरसिद्ध केवलनाणे चेव ।" (पूर्ण पाठ) इनके व्याख्यास्त्ररूप सूत्र भी आगम में मिलते हैं। अनुयोगद्वार सूत्र में इन्द्रियप्रत्यक्ष नोइन्द्रियप्रत्यक्ष- ये दोनों भेद प्रत्यक्ष ज्ञान के प्रतिपादित किए गए हैं। अवधिज्ञान के भवप्रत्यय और क्षायोपशमिक ये दोनों भेद एवं इनकी व्याख्या भी विस्तार से मिलती है। (जीवगुणप्रत्यक्षाधिकार ) । स्थानांग आदि में अवधिज्ञान के छ: भेद प्रतिपादित किए गए हैं। इन भेदों के नाम और मध्यगत-अन्तगत आदि विषय प्रज्ञापना सूत्र (पद ३३ सूत्र ३१७) में आते हैं। अवधिज्ञान के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप से चार भेदों का सविस्तर वर्णन भी भगवती सूत्र शतक ८ उद्देशक २ सूत्र ३२३ में देखा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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