Book Title: Nandisutra aur uski Mahatta Author(s): Hastimal Maharaj Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 4
________________ |378 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क | जीवका एवोच्यन्ते' हारिभ्रदीया वृनि प.१ ५.७ । यदि देववाचक को ही नन्दीसूत्र का मूल कर्ता माना होता तो चुर्णि और वृत्ति में 'तेरासिय' पद का अर्थ भी आचार्य त्रैराशिक सम्प्रदाय करते, क्योंकि वी.नि. ५४४ में रोहगुप्त आचार्य से त्रैराशिक सम्प्रदाय का आविर्भाव हो चुका था। फिर भी तेरासिय' पद से आजीवक ही कहे जाते हैं, ऐसा आचार्य श्री का निश्चयात्मक वचन यही सिद्ध करता है कि नन्दीसूत्र को मौलिक रचना गणधरकृत है, क्योंकि देववाचक का सत्ता समय दृष्यगणि के बाद माना गया है, वी. नि . . ४८ के पूर्व का नहीं। इन सब प्रमाणों से सिद्ध होता है कि 'देववाचक' आचार्य नन्दीसूत्र के संकलनकर्ता ही हैं। देववाचक और देवर्द्धिगणि- नन्दीसूत्र के संकलनकर्ता श्री टेववाचक और देवर्द्धिगणि दोनों भिन्न-भिन्न हैं या एक ही आचार्य के ये दो नाम हैं, इस विषय में श्रीमन्नन्दीसूत्र के उपोद्घात में इस प्रकार लिखा है- 'देववाचक का दूसरा नाम श्री देवद्धिगणी है, किन्तु नन्दीसूत्र के संकलनकर्ता देववाचक आगमों को पुस्तकारूढ करने वाले देवर्द्धि से भिन्न हैं।'' स्थविरावली की मेरुतुंगिया टीका में भी 'दूसगणिणो य टेवड्ढी' लिखकर देववाचक का दूसरा नाम देवर्द्धि माना है। 'गच्छमतप्रबन्ध अने संघ प्रगति' के लेखक बुद्धिसागर सूरी ने पृ. ५२६ की पट्टावली में भी देववाचक और देवर्द्धि को भिन्न-भिन्न माना है। उपर्युक्त मान्यता में नन्दी व कल्पसूत्र की स्थविरावली प्रमाण समझी जाती है, क्योंकि नन्दीसूत्र के रचयिता देववाचक को वृनिकार ने दृष्यगणि का शिष्य कहा है और कल्प की स्थविरावली के निर्माता देवगिणी शाण्डिल्य के शिष्य माने गये हैं, देवर्द्धि जो पूर्ववर्ती हैं वे शास्त्रों को पुस्तकारूढ करने वाले माने जायेंगे और दृष्यगणि के शिष्य देववाचक नन्दीसूत्र के लेखक होंगे। अर्थात् शास्त्रलेखन के बाद नन्दीसूत्र का निर्माण मानना होगा, जो सर्वथा विरुद्ध है। नन्दीसूत्र की विशेषता श्री नन्दीसूत्र और श्री देवर्द्धिगणी के विषय में संक्षिप्त परिचय देकर हम प्रस्तुत सूत्र की विशेषता पर विचार करते हैं। स्थानांग, समवायांग, भगवती व राजप्रश्नीय आदि अंग और उपांग शास्त्रों में प्रसंगोपात्त ज्ञान का वर्णन मिलता है, किन्तु इस प्रकार विशद रीति से पाँच ज्ञानों का एकत्र वर्णन नन्दीसूत्र में ही उपलब्ध होता है, श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के अवग्रह आदि भेदों को प्रतिबोधक व मल्लक के उदाहरण से समझाना और चार बुद्धिओं का उदाहरण के साथ परिचय देना यह गन्दीसूत्र की खास विशेषता है। पूर्व वर्णित विषय का गाथाओं के द्वारा संक्षेप में उपसंहार कर दिरखाना यह इस सूत्र की दूसरी विशेषता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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