Book Title: Nandisutra aur uski Mahatta
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 2
________________ 376 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क | दृष्टान्त से अवग्रह, ईहा आदि में परस्पर भेद समझाया गया है। इसके बाद उत्तरार्ध में श्रुतज्ञान परोक्ष के १. अक्षर २. अनक्षर ३. सन्नि ४. असन्नि ५. सम्यक् ६. मिथ्या ७. सादि. ८. अनादि ९. सावसान १०. निरवसान ११. गमिक १२. अगमिक १३. अंगप्रविष्ट और १४. अनंगप्रविष्ट ऐसे १४ भेटों का कथन करके क्रमश: उनका स्वरूप बताया गया है। अंगबाह्यश्रुत में आवश्यक के ६ अध्ययनों और उन्कालिक व कालिक श्रुतों की परिगणना की गई है। बाद में अंगप्रविष्ट में ११ अगों का विषय-परिचय व उनके श्रुतस्कन्ध, अध्ययन आदि का परिमाण एवं उद्देशन समुद्देशन काल का निर्देश किया गया है। फिर १२वें अंग दृष्टिवाद के १. परिकर्म २. सूत्र ३. पूर्वगत ४. अनुयोग व ५. चूलिका इन पाँचों प्रकारों का अवान्तर भेदों के साथ वर्णन किया गया है। अन्त में द्वादशांगी की विराधना का संसार में भ्रमण रूप और उसकी आराधना का संसार से तारणरूप फल बताया है। उपसंहार में पंचास्तिकाय की तरह द्वादशांगी की नित्यता दिखाकर श्रुतज्ञान के भेटों का टो गाथाओं से संग्रह किया है। आगे अनुयोग श्रवण एवं अनुयोग दान की विधि कही गई है। इस प्रकार श्रुतज्ञान परोक्ष के साथ नन्दीसूत्र की समाप्ति होती है। रचना का मूल आधार एवं शैली- इसकी रचना का मूल आधार पाँचवाँ ज्ञानप्रवाद पूर्व संभव लगता है, क्योंकि उसमें ज्ञानसंबंधी वर्णन है। वर्तमान के अंगोपांग आदि शास्त्र में भी इसका आधार मिलता है। नन्दीसूत्र की रचना सूत्र और गाथा उभयरूप से हुई है। इसकी सूत्ररचना प्रश्नोत्तर के रूप में होने से प्राय: सुगम है। प्रत्येक प्रश्न वाक्य के अन्तिम पद को उत्तर वाक्य में भी दुहराया गया है। प्राचीन आगमों में बहुधा यह शैली दृष्टिगोचर होती है (देखें, भगवतीसूत्र आदि अंगशास्त्र)। यहां पाठकों को शंका होगी कि शास्त्र तो अल्पाक्षर और बहु अर्थवाले होते हैं, फिर इस सूत्र में एक ही पद की अनेक बाद आवृत्ति क्यों की? क्या इससे पुनरुक्ति दोष नहीं होगा? उत्तर में पुनरुक्ति सर्वत्र दोष ही होता है या कहीं गुण भी, यह समझना चाहिए। आचार्यों ने कई प्रसंग ऐसे गाने हैं जिनमें पुनरुक्ति दोष नहीं होता, यथा पुनरुक्तिर्न दुष्यते । उपर्युक्त श्लोक में आदरार्थ किये गये पुनरुक्त को भी निर्दोष माना है, इसके सिवाय कहीं-कहीं सुबोधार्थ की भी शाब्दिक या आर्थिक पुनरक्ति की गई है, जैसे-आघविज्जइ, पन्न. आदि, इसके लिए आचार्य ने 'शिष्यबुद्धिवैशद्यार्थम्' ऐसा उत्तर दिया है। भाषा और ग्रन्थ परिमाण भगवती सूत्र की तरह नन्दीसूत्र की मूलभाषा प्राचीन प्राकृत है। प्राकृत साहित्य में थोड़ा भी अभ्यास रखने वाला इस पर से सहज बोध कर सकता है। ग्रन्थ परिमाण सात सौ का कहा जाता है। जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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