Book Title: Namaskar Mahamantra Ek Vishleshan Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 2
________________ ११८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतर्थ खण्ड .. . ............................................................... आचारांग सूत्र के प्रारम्भ में मंगल-वाक्य उपलब्ध नहीं है । उसका प्रारम्भ-'सुयं मे आउसं ! तेण भगवया एवमक्खायं'-इस वाक्य से होता है। सूत्रकृतांग सूत्र का प्रारम्भ-'बुज्झेज्झ तिउट्टेज्जा'--इस उपदेश-वाक्य से होता है। स्थानांग और समवायांग सूत्र के आदि-वाक्य 'सुयं मे आउसं ! तेण भगवता एवमक्खातं'-हैं। भगवती सूत्र के प्रारम्भ में तीन मंगल वाक्य मिलते हैं १. नमो अरहताणं । नमो सिद्धाणं । नमो आयरियाणं । नमो उवज्झायाणं। नमो सव्व साहूणं २ नमो बंभीए लिवीए ३. नमो सुयस्स । ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा-इन सब सूत्रों का प्रारम्भ 'तेण कालेणं तेण समएणं'--से होता है। प्रश्नव्याकरण सूत्र का आदि-वाक्य है---'जम्बू ।' विपाकसूत्र का आदि-वाक्य वही-'तेण कालेणं तेण समएणं' है। जैन आगमों में द्वादशांगी स्वत: प्रमाण है। यह गणधरों द्वारा रचित मानी जाती है। इसका बारहवाँ अंग उपलब्ध नहीं है । उपलब्ध ग्यारह अंगों में, केवल भगवती सूत्र के प्रारम्भ में मंगल-वाक्य हैं, अन्य किसी अंग-सूत्र का प्रारम्भ मंगल-वाक्य से नहीं हुआ है। सहज ही प्रश्न होता है कि उपलब्ध ग्यारह अंगों में से केवल एक ही अंग में मंगल-वाक्य का विन्यास क्यों ? कालान्तर में मंगल-वाक्य के प्रक्षिप्त होने की अधिक संभावना है। जब यह धारणा रूढ़ हो गई कि आदि, मध्य और अन्त में मंगल-वाक्य होना चाहिए तब ये मंगल-वाक्य लिखे गये। __भगवती सूत्र के पन्द्रहवें शतक के प्रारम्भ में भी मंगल-वाक्य उपलब्ध होता है 'नमो सुयदेवयाए भगवईए'। अभयदेवसूरि ने इसकी व्याख्या नहीं की है। इससे लगता है कि प्रारम्भ के मंगल-वाक्य लिपिकारों या अन्य किसी आचार्य ने वृत्ति की रचना से पूर्व जोड़ दिये थे और मध्यवर्ती मंगल वृत्ति की रचना के बाद जुड़ा । पन्द्रहवें अध्ययन का पाठ विघ्नकारक माना जाता था, इसलिए इस अध्ययन से साथ मंगल-वाक्य जोड़ा गया, यह बहुत संभव है। मंगलवाक्य के प्रक्षिप्त होने की बात अन्य आगमों से भी पुष्ट होती है। दशाश्रु तस्कन्ध की वृत्ति में मंगल-वाक्य के रूप में नमस्कार मंत्र व्याख्यात है, किन्तु चूणि में वह व्याख्यात नहीं है। इससे स्पष्ट है कि चूणि के रचनाकाल में वह प्रतियों में उपलब्ध नहीं था और वृत्ति की रचना से पूर्व वह उनमें जुड़ गया था। कल्पसूत्र (पर्दूषणाकल्प) दशाश्रुतस्कन्ध का आठवाँ अध्ययन है। उसके प्रारम्भ में भी नमस्कार मंत्र लिखा हुआ मिलता है । आगम के अनुसन्धाता मुनि पुण्यविजयजी ने इसे प्रक्षिप्त माना है। उनके अनुसार प्राचीनतम १. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा० १३, १४ : तं मंगलमाईए मज्झेपज्जंतए य सत्थस्स । पठमं सत्थस्साविग्धपारगमणाए निद्दिठं ॥ तस्सेवाविग्घत्थं मज्झिमयं अंतिमं च तस्सेव । अव्वोच्छित्तिनिमित्त सिस्सपसिस्साइवंसस्स। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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