Book Title: Muni Meru Rachit Nav Gitikao
Author(s): Bhuvanchandravijay
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 4
________________ सप्टेम्बर २००८ ७ [ रागः ] ॥ धनाश्रयी ॥ हितुहितु विवेक विचारिलइ मनुरी गिलइ अजित जिण पाइ ॥१॥ परम लखु पाया रे, ऊपजेले अति आनंद || देवी विजयानंदनु जिनु जयउ, मुनि मेरु कहइ सरस सभाउ ||२|| परम लखु पाया रे, ऊपजेले अति आनंद ||दू०|| ॥ अजितजिनेश्वरगीतं ॥ ८ ( राग ) ॥ पूर्वी मलार ॥ अम्हाच सरीरि सो गुण नही, रीजवीजड़ जिणि प्रभुचीत मुनागर रूवडउ मनि रे, आरे कासी पुरपति जिननाथ ॥०॥ मेरु कहइ इकु अंतरंगु नेकु हइ, इतनइ जो होइ सु होउ । २ मुनागरू० ॥ इति बाणारसीपार्श्वनाथगीतं ॥ ४७ ९ ॥ कुमोदवराडी ॥ Jain Education International चेतनारूप आतमा विचारि विमोहि न मोहियला ||१ सु तनु मनु रहसिला रे आणंदू पाइला ॥ दू मेर भणइ जिनभद्र सूरि पाटि जिनचंद्र सूरि देखिला ॥ २ सुतनुमनु०॥ इति जिनचंद्रसूरि गीतं ॥ एतानि गीतानि श्रीकमलसंयमोपाध्यायविनीतविनेयमुनिमेरुमुनिना कृतानि ॥ भद्रं ॥ छ। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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