Book Title: Muni Meru Rachit Nav Gitikao
Author(s): Bhuvanchandravijay
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ अनुसन्धान ४५ मुनि मेबु रचित नव गीतिकाओ - उपा. भुवनचन्द्र माण्डल-पार्श्वचन्द्रगच्छजैनसंघना ज्ञानभण्डारना एक प्रकीर्ण पत्रमाथी मळेला नव गीतो यथामति संकलित करीने विद्वानो समक्ष मूकी रह्यो छु. कर्ताए पोते जणाव्यु छ : जिनभद्रसूरिनी पाटे श्रीजिनचन्द्रसूरिनां दर्शन कर्या. लिपिकारे जणाव्युं छे तेम मुनि मेरु कमलसंयम उपाध्यायना शिष्य हता. ___ गीतो भाववाही छे अने शास्त्रीय रागोमां निबद्ध छे. गीतोनी भाषा ध्यान खेंचे छे. ___ 'संगतू', 'गमिले' जेवा शब्दो मराठी, स्मरण करावे छे. 'दुइ', 'करिवो' 'जाइवो' वगेरे शब्दो बंगाळीना सूचक छे. 'इम' 'इणि', 'एह' जेवा शब्दो मारुगूर्जर भाषाना छे. "जिणह' जेवो अपभ्रंश प्रयोग पण आमां छे. 'वदति' एवो शुद्ध संस्कृत शब्द पण जोवा मळे छे. 'नेकु' (नेक) ए- ऊर्दूअरेबिक शब्द पण अत्रे हाजर छे. रचयिता विविध देशोमां विचरनार एक मुनि छ माटे आम थयुं छे के आवी भाषा कोई प्रदेशमां बोलाती हती - ए विशे तज्ज्ञो ज प्रकाश पाडी शके. 'पहिरि दाखिणु चीर' (गी. ४) - दक्षिणी चीर अर्थात् वस्त्रनो उल्लेख हशे ? जो एम होय तो मराठी साथे सीधो सम्बन्ध स्थापित थाय. गीत ८ मांनो शब्द 'मुनागरू' तपास मागे छे. मुनि मेरु विशे माहिती प्राप्त थई नथी. कमलसंयम उपाध्यायनी रचनाओ नोंधाई छे. बंगाळी के मराठीना प्राचीन रूपना नमूना समान आ रचनाओ भाषा रसिकोने रसप्रद जणाशे एवी आशा छे. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्टेम्बर २००८ ॥ गउड श्रीराग ॥ अंधकार गमिले प्रगट प्रगासे, इणि कारणि दोषाकरु जले पतित पलासे ।।१।। भमरा रंगु कियले कमल निवासे सुकरम दिनकर किरणि नियतु वगासे दू०।। सुगुरु वचन रसो निज मनि आणी, मुनि मेरु समरइ जिनु परमारथु जाणी ॥ २ भमरा० इति गीतं ।। पूनिमरजनीकरु उपमा लावइ रमणी वदन कहं जनु रहसइ । धिगु लाला मल कफ जल पूरित अधम उतिम मानइ मोहवसे ॥१॥ भमियउ भमियउ जीवा एणि परे, चिन्तामणि बुधि काच गहिउ करे ।द्रू। सिव पुरि चालतं मारगि वटपाडउ, मनसिज बाणिहि निघिण हणइ । एम न विंदति मानव हरखति, तरुणी नयनपेखि मूरख पणइ ।भिमि० ।।२।। अधर अधरगति संगति दायकु, परम पदिहिं जात जीउ धरइ । वटफल जिम एह बाहिरि मनोहरु, अंतरंगु विचारतु चितु न हरइ ।।भूमि० ।।३।। कुचयुग अमृतकलस जिम सोइह, इणि भ्रमि भूलउ म संसार सरे । धरम वाहन पंथि ए दुइ परवत, पार चाहसि तउ यतन करे ।भूमि० ।।४।। दुरगंध असुचि लजा ऊपजावइ, तउवि तरुणी अंग जीउ सरइ । करम वाहितु न जपइ परमेसर, सुरसरि छोडि पंकि न्हाणु करइ ||भूमि०।।५।। त्रिभुवनपति जिनचरण प्रसादि, भ्रम भंजिवि परबोधु लहइ । कमलसंजम उवझाय पद पंकज एकचितु मुनि मेरु एम कहइ ||भूमि०।।६।। ॥ इति धनाश्रयिरागेणस्त्रीविरक्तिकारणगीतं ॥ ॥ श्री राग ॥ सकल मंगल कारणू रे, आरे वीतराग मइ भेटिउ युगादि देउ ।।१।। भावइ रे भावइ जिणिदू रे, आरे आदिनाथ पदि मनु लागिनला ॥द्रू०॥ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४५ मुनि मेरु संग संगतूरे, आरे जिन जिन जापि पश्य आनंदु || २ भावइ० || आदिनाथगीतं || ४ ॥ श्री राग ॥ पहिरि दाखिणु चीरु चंदणु लावइ सरीरु, सकल सिंगार करइ । गजपति गति चालइ बोलइ चतुरपणि, कहु किसु मनु न हरइ ॥१॥ आ रे आजु काइ करिवो, सखी रे जिणह भुवनि जाइवो ||दू०|| मुनिमेर वदति वदन निरखियले परमाणंद भयो । जीराउलि प्रभु नवल निनादिं पारसनाथ जयो ||२|| रे आ आजु० ॥ इति जीराउलापार्श्वनाथगीतं ॥ ४६ ५ [ रागः ] ॥ नाट ॥ सखी रे रहसु जले कवलु आजु तुझ चिति, अवरु न चाहइ रंगु ||१|| मोरा मनु लागिला, देखिनला पारसनाथ ||०|| जय सु सोहागिलु अससेणर (रा) यां तनि, संगति यति मुनिमेर ||२|| मोरा मनु लागिला, देखिनला पारसनाथ ||दू०11 ॥ पार्श्वनाथ गीतं ॥ ६ [ राग: ] केदारा पसु देखि नेमि रथ वालिलाइ टालिलइ पातगु कलिमलो । राजल काजल पूरित मुख देखी सखी रे वचन कहिलो ||१|| कवणु मति एहु लिली, किहां चातुरी नेह गहिली ॥ ० ॥ अपुचे रंगि रंगु सखी रे न कीजइ परचि रंगि रंगु भलो वीतरागु नेमिनाथ न करइ नेहु, आपुचा तइ मनु लाइलो || कवणु० || रहु सखि पतंग रंगु न धरीजइ, मोरउ रंगु मंजीठ जिसो । अविचल सम्बन्धु नेमिराजीमती जले थिर रंगु इसो ॥ कवणु० ॥ ॥ इति नेमिनाथ गीतं ॥ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्टेम्बर २००८ ७ [ रागः ] ॥ धनाश्रयी ॥ हितुहितु विवेक विचारिलइ मनुरी गिलइ अजित जिण पाइ ॥१॥ परम लखु पाया रे, ऊपजेले अति आनंद || देवी विजयानंदनु जिनु जयउ, मुनि मेरु कहइ सरस सभाउ ||२|| परम लखु पाया रे, ऊपजेले अति आनंद ||दू०|| ॥ अजितजिनेश्वरगीतं ॥ ८ ( राग ) ॥ पूर्वी मलार ॥ अम्हाच सरीरि सो गुण नही, रीजवीजड़ जिणि प्रभुचीत मुनागर रूवडउ मनि रे, आरे कासी पुरपति जिननाथ ॥०॥ मेरु कहइ इकु अंतरंगु नेकु हइ, इतनइ जो होइ सु होउ । २ मुनागरू० ॥ इति बाणारसीपार्श्वनाथगीतं ॥ ४७ ९ ॥ कुमोदवराडी ॥ चेतनारूप आतमा विचारि विमोहि न मोहियला ||१ सु तनु मनु रहसिला रे आणंदू पाइला ॥ दू मेर भणइ जिनभद्र सूरि पाटि जिनचंद्र सूरि देखिला ॥ २ सुतनुमनु०॥ इति जिनचंद्रसूरि गीतं ॥ एतानि गीतानि श्रीकमलसंयमोपाध्यायविनीतविनेयमुनिमेरुमुनिना कृतानि ॥ भद्रं ॥ छ।