Book Title: Most Ancient Aryan Society
Author(s): Ram Chandra Jain
Publisher: Institute of Bharatalogical Research Sriganganagar Rajasthan

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Page 294
________________ ( 267 ) References 1. Rgveda; 5.6. 10. 3. 2. Rgveda; 6.3.5. 5. 3. Rgveda; 1. 6. 1.5%33. 3. 1. 183; 3. 5.1.21; 1. 14. 7.7%32.2.6.7. 4. (1) Rgveda%; 5. 1. 7.83; 8.7.2.7; 9.6. 1.44. (2) Rgveda-Samhita (V.S.M.); Op. Cit. ; Vol. III ; Page 8133; Vol. II; Page 745 ; Vol. IV; P. 233. (3) H. H. Wilson ; Rgveda ; Vol. V; Page 321. 5. Rgveda; 7. 3.8.2, 3, 5,6; 7.3. 5.6; 4. 3.9.24; 5.2.2.2%3 2. 1.1.73; 5.3.9.4%; 5.3.10.5; 5.4.2.6%3 5.4.7.113; 5. 3. 9. 11; 6. 4. 6. 14; 7.3. .1; 7. 3. 7.23; 5.4.5.13; 5.6.10.13; 8.10.9.6. 6. Rgveda; 1.21. 2. 10; 1.21. 2. 11; 2. 1. 11.21; 2.2.4.10%B 2.2.5.9; 2.2.6.9; 2.2.7.93 2.2.8.9; 2.2.9.9%; 3. 3.7.5%3 3.5.2.17; 5.4.4.5; 6.1.13.23; 7.4.9.43; 8.5.1.11; 1.20.1.599.7.6.13. 7. (I) Rgveda: I. 22.8.40; 3. 3. 1. 19; 3. 5.9.113; 7.3.8.4, 5. (2) Rgveda-Samhita (V.S.M.); Op. Cit.; Vol. I; Page 1007. 8. Siddheswar Varma ; Op. cit.; Page 85. 9. Rgveda 8. 3. 1, 31-33. वृषायमिन्द्र ते रथ उतो ते वृषणा हरी' । वृषा त्वं शतकृतो वृषा हवः ।। वृषा नावावूषा मदो वृषा सोमो अयं सुतः। वृषा यज्ञो यमिन्वसि वृषाह। वृषा त्वा वृषणं हुवे वर्जिञ्चित्रामिरुतिमिः। वावन्थ हि प्रतिष्टुतिवृषाहवः ॥ 19. Rgveda : 8. 1. 3. 14 ; ४. I. I. 27. कदुस्तुवन्त ऋतयन्त देवत ऋषिः को विप्र ओहते। कदा हवं' मघवन्निन्द्र सुन्वतः कटु' स्तुवत आ गमः॥ य एको अस्ति दसना मुहाँ उग्रो अमि व्रतैः । गमत्स शिप्री न स यो'षदा गंमद्धवन परि वर्जति ॥ 11. Rgveda ; l. 4. 6.2 गन्तारा हि स्थोऽवस हवं विप्रेस्य माव॑तः । धर्तारा' चर्षसीनाम् ॥ 12. Rgveda I. 6. 7.8. आ घा' गमद्यदि श्रवत्सहनिर्णा'भिरूतिभि:। वाजेभिरुपं नो हव॑म् ।। 13. Rgveda ; l. 9. 2. 3; 1. 9. 4. 2. प्रियमे धवदंत्रिवजातवेदो विरूपवत् । अङ्गिरस्वन्महिव्रत प्रस्कण्वस्य श्रुधी हवम् ॥ विवन्धुरेणं त्रिघृता' सुपेशंसा रथेना या'तमश्विना । कण्वा' सो वां ब्रह्म कृण्वन्त्यध्वरे तेषं सु शृणुत हर्षम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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