Book Title: Moksh marg prakashak
Author(s): Todarmal Pandit
Publisher: Kundkund Kahan Digambar Jain Trust

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Page 308
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २६४] [मोक्षमार्गप्रकाशक उसको घटाता है सो स्थितिकाण्डकघात है; तथा उससे छोटे एक-एक अन्तर्मुहूर्तसे पूर्वकर्मके अनुभागको घटाता है सो अनुभागकाण्डकघात है; तथा गुणश्रेणीके कालमें क्रमशः असंख्यातगुने प्रमाणसहित कर्मोंकी निर्जराके योग्य करता है सो गुणश्रेणी निर्जरा है। तथा गुणसंक्रमण यहाँ नहीं होता , परन्तु अन्यत्र अपूर्वकरण हो वहाँ होता है। इसप्रकार अपूर्वकरण होनेके पश्चात् अनिवृत्तिकरण होता है। उसका काल अपूर्वकरणके भी संख्यातवें भाग है। उसमें पूर्वोक्त आवश्यक सहित कितना ही काल जानेके बाद अन्तरकरण करता है, जो अनिवृत्तिकरणके काल पश्चात् उदय आने योग्य ऐसे मिथ्यात्वकर्मके मुहूर्तमात्र निषेक उनका अभाव करता है; उन परमाणुओंको अन्य स्थितिरूप परिणमित करता है। तथा अन्तरकरण करनेके पश्चात् उपशमकरण करता है। अन्तरकरण द्वारा अभावरूप किये निषेकोंके ऊपरवाले जो मिथ्यात्वके निषेक हैं उनको उदय आनेके अयोग्य बनाता है। इत्यादिक क्रिया द्वारा अनिवृत्तिकरणके अन्तसमयके अनन्तर जिन निषेकोंका अभाव किया था, उनका काल आये, तब निषेकोंके बिना उदय किसका आयेगा? इसलिये मिथ्यात्वका उदय न होनेसे प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। अनादि मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्र मोहनीयकी सत्ता नहीं है, इसलिये वह एक मिथ्यात्वकर्मका ही उपशम करके उपशम सम्यग्दृष्टि होता है। तथा कोई जीव सम्यक्त्व पाकर फिर भ्रष्ट होता है, उसकी दशा भी अनादि मिथ्यादृष्टि जैसी हो जाती है। यहाँ प्रश्न है कि परीक्षा करके तत्त्वश्रद्धान किया था, उसका अभाव कैसे हो? समाधान :- जैसे किसी पुरुषको शिक्षा दी। उसकी परीक्षा द्वारा उसे 'ऐसे ही है' - ऐसी प्रतीति भी आयी थी; पश्चात् किसी प्रकारसे अन्यथा विचार हुआ, इसलिये उस शिक्षामें संदेह हुआ कि इसप्रकार है या इसप्रकार ? अथवा 'न जाने किस प्रकार है ?' अथवा उस शिक्षाको झूठ जानकर उससे विपरीतता हुई तब उसे अप्रतीति हुई और उसके उस शिक्षाकी प्रतीतिका अभाव होगया। अथवा पहले तो अन्यथा प्रतीति थी ही , बीचमें शिक्षाके विचारसे यथार्थ प्रतीति हुई थी; परन्तु उस शिक्षाका विचार किये बहुत काल हो किमंतरकरणं णाम? विवक्खियकम्माणं हेट्ठिमोवरिमट्टिदीओ मोत्तूण मज्झे अन्तोमुहुत्तमेत्ताणं छिदीणं परिणामविसेसेण णिसेगाणमभावीकरणमंतरकरणमिदि भण्णदे ।। (जयधवला, अ० प० ९५३) अर्थ :- अन्तरकरणका क्या स्वरूप है? उत्तर :- विवक्षितकर्मोकी अधस्तन और उपरिम स्थितियोंको छोड़कर मध्यवर्ती अंतर्मुहूर्तमात्र स्थितियोंके निषेकोंका परिणाम विशेषके द्वारा अभाव करनेको अन्तरकरण कहते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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