Book Title: Moksh marg prakashak
Author(s): Todarmal Pandit
Publisher: Kundkund Kahan Digambar Jain Trust

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Page 374
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३३०] [ मोक्षमार्गप्रकाशक भासित न हो, तब मोक्षमार्ग प्रयोजन को सिद्धि न हो; व जीवादिकके विशेष व आस्रवादिकके स्वरूप का श्रद्धान हुए बिना इतने ही विचार से अपनेको सम्यक्त्वी माने, स्वच्छन्द होकर रागादि छोड़नेका उद्यम न करे। - इसके भी ऐसा भ्रम उत्पन्न होता है। ऐसा जानकर इन लक्षणोंको मुख्य नहीं किया। तथा तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणमें जीव-अजीवादिकका व आस्रवादिकका श्रद्धान होता है, वहाँ सर्वका स्वरूप भलीभाँति भासित होता है, तब मोक्षमार्गके प्रयोजन की सिद्धि होती है। तथा यह श्रद्धान होनेपर सम्यक्त्वी होता है, परन्तु यह सन्तुष्ट नहीं होता। आस्रवादिकका श्रद्धान होनेसे रागादि छोड़कर मोक्षका उद्यम रखता है। इसके भ्रम उत्पन्न नहीं होता। इसलिये तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणको मुख्य किया है। अथवा तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणमें तो देवादिकका श्रद्धान व आपापरका श्रद्धान व आत्मश्रद्धान गर्भित होता है, वह तो तुच्छबुद्धियोंको भी भासित होता है। तथा अन्य लक्षणमें तत्त्वश्रद्धानका गर्भितपना विशेष बुद्धिमान हों उन्हीं को भासित होता है, तुच्छबुद्धियोंको नहीं भासित होता; इसलिये तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणको मुख्य किया है। अथवा मिथ्यादृष्टिके आभासमात्र यह हों; वहाँ तत्त्वार्थोंका विचार तो शीघ्रतासे विपरीताभिनिवेश दुर करने को कारण होता है, अन्य लक्षण शीघ्र कारण न हों, व विपरीताभिनिवेशके भी कारण हो जायें। इसलिये यहाँ सर्वप्रकार प्रसिद्ध जानकर विपरीताभिनिवेश रहित जीवादि तत्त्वार्थों का श्रद्धान सो ही सम्यक्त्व का लक्षण है, ऐसा निर्देश किया। ऐसे लक्षण निर्देश का निरूपण किया। ऐसा लक्षण जिस आत्मा के स्वभावमें पाया जाता है वही सम्यक्त्वी जानना। सम्यक्त्वके भेद और उनका स्वरूप अब , इस सम्यक्त्वके भेद बतलाते हैं : वहाँ प्रथम निश्चय–व्यवहारका भेद बतलाते है – विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धानरूप आत्माका परिणाम वह तो निश्चयसम्यक्त्व है, क्योंकि यह सत्यार्थ सम्यक्त्वका स्वरूप है, सत्यार्थहीका नाम निश्चय है। तथा विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धानको कारणभूत श्रद्धान सो व्यवहारसम्यक्त्व है, क्योंकि कारणमें कार्यका उपचार किया है, सो उपचारहीका नाम व्यवहार है। वहाँ सम्यग्दृष्टि जीवके देव-गुरु-धर्मादिकका सच्चा श्रद्धान है, उसी निमित्तसे इसके श्रद्धानमें विपरीताभिनिवेशका अभाव है। यहाँ विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान सो तो निश्चयसम्यक्त्व है और देव-गुरु-धर्मादिकका श्रद्धान है सो व्यवहारसम्यक्त्व है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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