Book Title: Mimansa Darshan me Karm ka Swarup
Author(s): K L Sharma
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 5
________________ २०० ] [ कर्म सिद्धान्त होता है। उदाहरण के रूप में दर्श पूर्णमास याग को ले सकते हैं। समुदाय के प्रत्येक यज्ञ का अपना अपूर्व होता है जिसे उत्पत्यपूर्व अपूर्व कहते हैं । अंगों से उत्पन्न होने वाला अपूर्व अंगापूर्व कहलाता है। मीमांसा-दर्शन में कर्म सम्बन्धी उपर्युक्त विवेचन के बाद यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या ये दार्शनिक मात्र कर्म काण्ड (अर्थात् व्यक्ति को क्या करना चाहिये) के बारे में चर्चा करने के अतिरिक्त कुछ नहीं कहते ? उनके द्वारा कार्म-काण्ड का किया गया विवेचन कर्म से सम्बन्धित क्या दृष्टि प्रदान करता है ? इन प्रश्नों पर विवेचन सम्भवतः हमें उनके कर्म सम्बन्धी विचारों को उचित प्रकार से समझने में सहायक हो सकता है। . जैसा कि हम पहले कह आये हैं कि कर्म हमारे स्वाभाविक अंग हैं, इन्हें त्यागा नहीं जा सकता। मीमांसक दो प्रकार के कर्मों में भेद करते हैं । प्रथम सहजकर्म और द्वितीय ऐच्छिक कर्म । ऐच्छिक कर्मों से बुद्धि का सम्बन्ध होता है। ऐच्छिक कर्म एक काल में एक ही हो सकता है। क्रिया का अर्थ है विषय या वस्तु का देश के साथ संयोग । लेकिन इससे कर्म का प्रत्यय सीमित एवं स्थानीय नहीं कहा जा सकता क्योंकि एक ही विषय दो अलग-अलग कालों में अलग-अलग स्थानों पर हो सकता है। उदाहरण के रूप में अगर हम यह कहें कि 'यह व्यक्ति मथुरा का रहने वाला है' तो हम उसे एक ही स्थान में सीमित नहीं कर सकते । (देखिये जैमिनी सूत्र अध्याय १, पाद ३, सूत्र १९-२५) कर्म का कारण कोई उद्देश्य-- संतोष या सुख प्राप्ति की इच्छा होता है। केवल जीवित प्राणियों के कर्मों का उद्देश्य होता है। अकर्म में भी उद्देश्य होता है। कर्म, उद्देश्य एवं परिणाम में उसी प्रकार का सम्बन्ध है जिस प्रकार का विभिन्न अंगों का शरीर के साथ होता है । इच्छा जो कर्मों का आधार है, का सम्बन्ध ज्ञान से होता है । इच्छा को मनस् के गुण के रूप में ले सकते हैं । मीमांसा मत के अनुसार कर्म क्रिया पद द्वारा अभिव्यक्त होता है । क्रिया पद के अर्थ के लिये कर्ता और विषय की पूर्व कल्पना करनी पड़ती है । प्रत्येक क्रिया में मादेश छिपा रहता है। क्रिया को सार्थक तभी कहा जा सकता है जबकि उसमें आदेश निहित हो जैसे कि यजेत स्वर्गकामः ।' कर्म (गति) के ज्ञान के बारे में प्रभाकर का मत है कि हमें इसका ज्ञान अनुमान के द्वारा होता है और कुमारिल के अनुसार प्रत्यक्ष द्वारा । प्रभाकर का मत है कि हम वस्तु का केवल किसी स्थान विशेष से जुड़ना और अलग होना देखते हैं और उसके आधार पर कर्म या गति का अनुभव करते हैं । कुमारिल कहते हैं कि हमें गति १. इस बिन्दु की व्याख्या यहाँ सम्भव नहीं है। देखें मेरा लेख-भावना का तत्त्व मीमांसीय स्वरूप : ३१ वीं ऑल इण्डिया ओरियन्टल कान्फ्रेंस, जयपुर, १६८२ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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