Book Title: Mimansa Darshan me Karm ka Swarup
Author(s): K L Sharma
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 4
________________ मीमांसा-दर्शन में कर्म का स्वरूप ] [ १६६ फल के साथ कार्य कारणभाव के उपपत्यर्थ एक शक्ति है। जो कर्म से उत्पन्न होती है और व्यक्ति की आत्मा में रहती है । दूसरे शब्दों में प्रत्येक कर्म में अपूर्व (पुण्यापुण्य) उत्पन्न करने की शक्ति रहती है। कुमारिल ने अपने ग्रन्थ 'तन्त्रवार्तिक' में अपूर्व के स्वरूप पर चर्चा की है। उनके अनुसार अपूर्व प्रधान कर्म में अथवा कर्ता में एक योग्यता है जो कर्म करने से पूर्व नहीं थी और जिसका अस्तित्व शास्त्र के आधार पर सिद्ध होता है । कर्म द्वारा उत्पन्न निश्चित शक्ति जो परिणाम तक पहुँचती है, अपूर्व है । अपूर्व का अस्तित्व अर्थापति से सिद्ध होता है । कर्ता द्वारा किया गया यज्ञ कर्त्ता में साक्षात् शक्ति उत्पन्न करता है जो उसके अन्दर अन्यान्य शक्तियों की भांति जन्म भर विद्यमान रहती है और जीवन के अन्त में प्रति ज्ञात पुरस्कार प्रदान करती है। लेकिन दूसरी ओर प्रभाकर और उनके अनुयायी यह स्वीकार नहीं करते कि कर्म कर्ता के अन्दर एक निश्चित क्षमता उत्पन्न करता है जो अन्तिम परिणाम का निकटतम कारण है । कर्त्ता में इस प्रकार की क्षमता प्रत्यक्षादि प्रमाणों से भी सिद्ध नहीं होतो । दूसरे शब्दों में प्रभाकर के अनुसार क्षमता की कल्पना कर्म में करना चाहिये न कि कर्ता में । मीमांसकों ने अपूर्व के चार प्रकारों की चर्चा की है-(१) परमापूर्व, (२) समुदायापूर्व (३) उत्पत्यपूर्व एवं (४) अंगापूर्व । साक्षात् फल को उत्पन्न करने वाले अपूर्व को परमापूर्व या फलापूर्व कहते हैं। यह अन्तिम फल की प्राप्ति कराता है । जहाँ कई भाग मिलकर एक कर्म कहा जाता है वहाँ समुदायापूर्व १. कर्म और फल के बीच सम्बन्ध की व्याख्या कई प्रकार से की गई है(१) कर्म से उत्पन्न शक्ति जो जीव में किसी न किसी रूप में सुरक्षित रहती है और समयानुसार स्वयं परिणाम उत्पन्न करती है (यह मत जैन, बौद्ध और मीमांसकों का है ।) (२) स्वयं इस शक्ति में फल उत्पन्न करने का सामर्थ्य नहीं होता, इसके अनुरूप फल उत्पन्न करने के लिये ईश्वर की आवश्यकता पड़ती है (यह मत नैयायिकों एवं वेदान्तियों का है)। प्रथम मत के अनुसार ऋत्, अदृष्ट, अपूर्व या संस्कार आदि प्राकृतिक कारणकार्य नियम की भांति फल उत्पन्न करता है। कर्मोत्पन्न शक्ति और फल में सीधा सम्बन्ध रहता है। दूसरे मत के अनुसार शक्ति या नियम में कारणात्मक सामर्थ्य नहीं हो सकता। यह सामर्थ्य केवल चेतन सत्ता में हो सकता है । यह सत्ता ईश्वर है। २. कुमारिल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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