Book Title: Mevad me Rachit Jain Sahitya
Author(s): Shantilal Bharadwaj
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ शान्तिलाल भारद्वाज 'राकेश' : मेवाड़ में रचित जैन-साहित्य : ८९५ wwwwwwwwwwwwwwwww ४. चित्रकूट प्रशस्ति-जिनसुन्दरसूरि के शिष्य श्री चारित्ररत्न गणि ने चित्तौड़ के महावीर-मंदिर की यह प्रशस्ति सं० १४६५ में लिखी. उक्त प्रशस्ति की सं० १५०८ की प्रतिलिपित प्रति भण्डारकर रिसर्च इन्स्टीट्यूट पटना में उपलब्ध हैं. ५. ऐतिहासिक गुरु श्रावलियां-जैन मुनि हेमसार ने इस में आचार्यों का चरित्र चित्रण किया है. हेमसार सं० १४६६ में देलवाड़ा में थे. उक्त कवि की निम्न रचनाओं का भी उल्लेख मिलता है : [अ] ज्ञान पंचमी चौपाई [ब] गुरु आवली उल्लिखित पुस्तक की भी एक ही प्रति मुनि कांतिसागर जी के संग्रह में देखने को मिली है. ६. वस्तुपाल चरित काव्य ७. रत्नशेखर कथा-उपरोक्त दोनों कृतियों की रचना आचार्य जयचन्द्रसूरि के शिष्य जिनहर्षगणि ने सं० १४६७ में चित्तौड़ में की. म. ज्ञान प्रदीप-चित्तौड़ में सं० १४६७ में विशालराज नामक मुनि ने इस ग्रन्थ की रचना सम्पन्न की. ६. चित्रकूट-चैत्य-परिपाटी-विख्यात जैन गद्यकार श्री पाशुचन्द्रसूरि रचित 'चित्रकूट-चैत्य-परिपाटी' में जैनमंदिरों का सुन्दर वर्णन मिलता है. पाशुचन्द्रसूरि का जन्म सं० १५३७, आचार्यपद सं० १५६५ और स्वर्गारोहण सं० १६१२ का रहा है इसलिये १६ वीं और १७ वीं शताब्दी के संधिकाल की मानी जानी चाहिए. १०. विक्रम-खापर चरित्र चौपई-सं० १५६३ में राजशील नामक कवि ने चित्तौड़ में उक्त कृति की रचना की. यह एक लोककथाकाव्य है. विक्रमादित्य और खापरिया चोर के प्रसिद्ध लोककथानक पर उक्त काव्य आधारित है. ११. गोराबादल पद्मिनी चौपाई-प्रमुख जैनाचार्य श्री हेमरत्नसूरि ने बड़ी सादड़ी में सं० १६४५ में उक्त कृति की रचना की. हेमरत्नसूरि का समय सं० १६१६ से सं० १६७३ तक का माना गया है. यह पूणियागच्छ के वाचक पद्मराज के शिष्य थे. कृति में जायसी के पद्मावत से मिलती-जुलती कथा है जिसमें इतिहास और कल्पना का सम्मिश्रण है. प्रधान रस वीर है लेकिन गौण रुप में शृंगार भी समाविष्ट है. स्वामीधर्म की बड़ाई और पद्मिनी का शीलवर्णन उक्त काव्य की विशेषताएँ हैं. कवि के अनुसार यह 'लिखमी वर्णन' नामक केवल पहला ही खण्ड है तथापि कथा की दृष्टि से यह अपने आप में पूर्ण काव्य प्रतीत होता है.२ १. राजस्थानी भाषा और साहित्य-डा० हीरालाल महेश्वरी (पृ० २६६). २. पद्मिनी की यह कथा काव्यरूप में सर्वप्रथम जायसो के पद्मावत में सं० १५४० में आई. इससे पूर्व भी लोककथा के रूप में यह कथा अत्यधिक प्रचलित रही है. जायसी के बाद फरिश्ता की 'तवारीखा' में जायसी के कथानक से ही मिलती-जुलती कथा मिलती है. नाहटा जी के संग्रह में भी 'गोराबादलकवित्त' नाम की कृति पाये जाने का उल्लेख मिलता है. वि० सं०१६४५ में हेमरत्नसूरि की उपरोक्त रचना मिलती है जो कथा की उसी परम्परा से सम्बद्ध है. इसके उपरांत भी, सं० १७६० में भागविजय नाम के एक जैन कवि ने इसी कथा का परिवर्धन किया. सं० १६८० में जटमल नाहर को 'गोरावादल चौपई' मिलती है. सं० १७०५-६ में लब्धोदय का 'पद्मिनी चरित' मिलता है जिसका उल्लेख इसी लेख में आगे किया गया है. _Jain ECRC9 6 C2523 walaingilibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11