Book Title: Meghagani Nirvan Ras
Author(s): Vinaysagar
Publisher: ZZ_Anusandhan

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________________ १२२ विमलहंसगणि प्रणीत श्री मेघागणि निर्वाण रास म. विनयसागर मेघजी गणि के सम्बन्ध में निम्नांकित गीत में 'अह्म [दा] वादी चारित्र लीडजी' एवं 'गणिमेघा' लिखा है इससे सम्भवतः श्रीहीरविजयसूरि के शिष्य हो यह कल्पना की जा सकती है और ये स्थानकवासी सम्प्रदाय से मुक्त होकर मन्दिरमार्गीय समाज में दीक्षित हुए हो । इसीलिए यह कल्पना की गई है कि ये मेघजी ऋषि सतरहवीं शताब्दी के हों किन्तु इस गीत में "विजयहंसगुरु पास" दीक्षा ग्रहण की, इससे स्पष्ट होता है कि ऋषि मेघजी से ये अलग हैं। इन दोनों गीतों में ऋषि शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है । अत: इन्हें भिन्न ही मानना श्रेयस्कर होगा । अनुसन्धान ४९ इस भास में कहीं भी संवतोल्लेख नहीं किया है, न दीक्षा ग्रहण करने का और न स्वर्गवास का । अतएव उनका समय निश्चित नहीं किया जा सकता । फिर भी यह निश्चित है कि अट्ठारहवीं शताब्दी का पत्र होने से ये अट्ठारहवीं शताब्दी में हुए होंगे । विजयहंस और विमलहंस इन दोनों के सम्बन्ध में 'पट्टावली - समुच्चय' मौन है । विजयहंस के पास दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् चातुर्मास नाणा में किया था और वहीं अनशन ग्रहण कर आत्मसिद्धि प्राप्त की थी और वैशाख सुदि १३ को इनकी स्वर्गवास हुआ था । नाणा के संघ ने वीर के मन्दिर में इनके चरण स्थापित किए थे और प्रतिदिन बहुत से नर-नारी वन्दन करने आते थे । इसमें एक विशेष बात यह है कि जोधिगशाह ने राणकपुर मन्दिर में रायणवृक्षके तले इनके चरण स्थापित किए थे । Jain Education International कवि कहता है कि चातक जिस प्रकार मेघ को कोयल जिस प्रकार वसन्त ऋतु को, मधुकर मालती पुष्प को, सती स्त्री अपने पति को, हाथी रेवा नदी को और मोर श्रावण मास की प्रतीक्षा करते हैं, उसी प्रकार मैं छः ऋतुओ के बारह मासों में मेघ महामुनि का नाम जपता रहता हूँ। उनके नाम For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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