Book Title: Manushya Jati ka Sarvottam Ahar Shakahar Author(s): Shikharchandra Kochar Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 1
________________ श्रीशिखरचन्द्र कोचर बी०ए०, एल०एल०बी०, पार०एच०जे०एस०, साहित्य शिरोमणि, साहित्याचार्य मनुष्य-जाति का सर्वोत्तम आहार :शाकाहार मनुष्य प्रकृति से ही शाकाहारी-प्राणी है. उसके शरीर की रचना दुग्धपेयी प्राणियों की शरीर-रचना से मिलती जुलती है, राष्ट्र-पिता महात्मा गांधी ने लिखा है : 'शरीर की रचना को देखने से जान पड़ता है कि कुदरत ने मनुष्य को वनस्पति खाने वाला बनाया है. दूसरे प्राणियों के साथ अपनी तुलना करने से जान पड़ता है कि हमारी रचना फलाहारी प्राणियों से बहुत अधिक मिलती है, अर्थात् बन्दरों से बहुत ज्यादा मिलती है. बन्दर हरे और सूखे फल-फूल खाते हैं. फाड़ खाने वाले शेर, चीते आदि जानवरों के दांत और दाढ़ों की बनावट हमसे और ही प्रकार ही होती है. उनके पंजे के सदृश हमारे पंजे नहीं हैं. साधारण पशु मांसाहारी नहीं हैं, जैसे गाय बैल. हम इनसे कुछ-कुछ मिलते हैं, परन्तु घास आदि खाने के लिये आरे जैसी आंतें उनकी हैं, हमारी नहीं हैं. इन बातों से बहुत से शोधक ऐसा कहते हैं कि मनुष्य मांसाहारी नहीं है. रसायन-शास्त्रियों ने प्रयोग करके बतलाया है कि मनुष्य के निर्वाह के लिये जिन तत्त्वों की आवश्यकता है, वे सब फलों में मिल जाते हैं. केले, नारंगी, खजूर, अंजीर, सेव, अनन्नास, बादाम, अखरोट, मूगफली, नारियल आदि में तन्दुरुस्ती को कायम रखने वाले सारे तत्त्व हैं. इन शोधकों का मत है कि मनुष्य को रसोई पकाने की कोई आवश्यकता नहीं है. जैसे और प्राणी सूर्य-ताप से पकी हुई वस्तु पर तन्दुरुस्ती कायम रखते हैं वैसे ही हमारे लिये भी होना चाहिए.' मनुष्य अनादि-काल से शैशवावस्था में मातृ-दुग्ध, और उसके अभाव में गोदुग्ध-दारा पोषित होता रहा है. इसी प्रकार मनुष्य-जाति अनादि-काल से ही शाकाहारी चली आ रही है. संसार के प्रायः सभी धर्मों में अहिंसा को प्रधानता दी गई है. जैन-धर्म का तो अहिंसा-सिद्धान्त प्राण ही है. अन्यान्य धर्मों में भी इस सिद्धान्त पर अत्यधिक बल दिया गया है. श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है : अात्मोपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं सयोगी परमो मतः। -अ०६, श्लोक० ३२. अर्थात्, जो सभी जीवों को अपने समान समझता, और उनके सुख एवं दुःख को अपने सुख-दुःख के समान समझता है, वही परम-योगी है. यथा : समं पश्यन् हि सर्वत्र, समवस्थितमीश्वरम् । न हिनस्त्यात्मनात्मानं, ततोयाति परां गतिम् । -अ० १३ श्लो० २८. अर्थात्, ज्ञानी पुरुष ईश्वर को सर्वत्र व्यापक जानकर हिंसा नहीं करता, क्योंकि वह जानता है कि किसी प्राणी की हिंसा करना आत्म-हत्या करने के समान है. इस प्रकार से वह सर्वोच्चगति को प्राप्त होता है. महात्मा बुद्ध ने भी कहा है : पाणे ने हने न घातयेय, न चानुमन्या हनंत परेसं । सब्वेसु भूतेस निघाय दंड, ये थावरा ये च तसंति लोके । -सुत्तनिपात-धम्मिक सुत्त. इसका भावार्थ यह है कि त्रस अथवा स्थावर जीवों को मारना या मरवाना नहीं चाहिए, और न ही त्रस या स्थावर जीवों को मारने वाले का अनुमोदन ही करना चाहिए. Jain Edelstein We & Test Use Only www.jamanarary.orgPage Navigation
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