Book Title: Mantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Author(s): Jinkirtisuri, Jaydayal Sharma
Publisher: Jaydayal Sharma

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Page 274
________________ (२३४) श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि । होते (१) हैं, अथवा शासन के प्रवर्तक होकर सिद्विरूप से मङ्गल के ईश होते (२) हैं, अयवा नित्य; अपर्यवसित, अनन्त; स्थिति को प्राप्त होकर उस के ईश होते (३) हैं, अथवा उन के कारण से भव्य जीव गुणसमूह के ईश होते (४) हैं; इसलिये “प्राञ्च” शब्द से सिद्धरूप ईशों का ग्रहण होता है, अतएव (५) यह जानना चाहिये कि-"पञ्चणमोक्कारी” (प्राञ्चनमस्कारः) इस पद के ध्यान और भाराधन से ईशित्व सिद्धि की प्राप्ति होता है । - ( प्रश्न )-“पञ्च णमोकारो” इस पद में ईशित्व सिद्धिके सन्निविष्ट होने में जिन हेतुओं का आप ने वर्णन किया है उन में प्रायशः जैन बन्धुओंकी ही श्रद्धा स्थिति का होना सम्भव है, इस लिये कृपाकर कुछ ऐसे हेतुओं का भी वर्णन कीजिये कि-जिन के द्वारा जनेतर जनों (शैव आदि) को भी यह बात अच्छे प्रकार से विदित हो जावे कि-"पञ्चणमोकारो” इम पद में शब्द सामर्थ्य विशेष से ईशित्व सिद्धि सन्निविष्ट है, ऐसा होने से वे भी श्रद्धायक्त होकर तथा उक्त पद का महत्त्व जानकर लाभ विशेष को प्राप्त क. रने के अधिकारी बन सकेंगे। (उत्तर)-यदि जैनेतर जनों की श्रद्धा उत्पन्न होने के लिये “पञ्चणमो. कारो” इस पद में सन्निविष्ट ईशित्व सिद्धि के हेतुओं को सुनना चाहते हो तो सुनो-उक्त पद में स्थित अक्षर विन्यास (६ के द्वारा उन के मन्तव्य के ही अनुसार उक्त विषय में हेतुओं का निरूपण किया जाता है, इन हेतुओं के द्वारा जैनेतर जनों को भी अवगत (७) हो जावेगा कि-अक्षर विन्यास विशेष से “पञ्चणमोकारो” इस पद में ईशित्त्व सिद्धि सन्निविष्ट है, पश्चात् इम से लाभ प्राप्त करना वा न करना उन के आधीन है। ( क )-“पचि व्यक्ती करणे” इप्त धातु से शतृ प्रत्यय करने से “पञ्चत्" शद बनता है तथा सृष्टि का विस्तार करनेके कारण "पञ्चत्" नाम ब्रह्मा का है, उन की क्रिया अर्थात् सष्टि रचना के विषय में "न" अर्थात् नहीं है १-प्रकर्षेण अपुनरावृत्या मोक्ष नगरी मञ्चन्तिअधिगत्ये शा भवन्ति, इति प्राञ्चाः ॥ २-प्रकर्षण शासन प्रवर्तकत्त्वेन सिद्विमङ्गलमञ्चन्ति उपेत्याधीशा भवन्तीति प्राञ्चाः।। ३-प्रकर्षण नित्यापर्यावसितानन्तस्थित्या सिद्धिधामाञ्जन्ति उपगम्याधीशा भवन्तीति प्राञ्चाः ॥ ४-प्रकर्षेणाञ्चन्ति प्राप्नुवन्ति भव्यजीवा गुणसमूहान्येभ्यस्ते प्राञ्चाः । ५इसीलिये ॥६-अक्षर-योजना ७-शात ॥ Aho! Shrutgyanam

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