Book Title: Mansahar ya Vyadhiyo ka Aagar Author(s): Pushkar Muni Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf View full book textPage 2
________________ ६१८ का माँसाहार से सीधा सम्बन्ध है। आस्ट्रेलिया विश्व का सर्वाधिक माँसाहार वाला देश है। वहाँ १३० किलोग्राम प्रतिवर्ष प्रतिव्यक्ति खपत तो अकेले गोमांस की ही मानी जाती है। इसी देश में आँतों का कैंसर भी सबसे अधिक होता है। इस समस्या के समाधान स्वरूप विशेषज्ञ चिकित्सकों द्वारा शाकाहार को अधिकाधिक अपनाए जाने का परामर्श दिया जा रहा है। अमेरिका के डॉक्टर इ. बी. ऐमारी और इंगलैण्ड के डॉ. इन्हा ने तो अपनी पुस्तकों में यह स्पष्ट स्वीकारोक्ति भी की है कि अण्डा जहर है। डॉ. आर. जे. विलियम्स (ब्रिटेन) की मान्यता है कि सम्भव है कि आरम्भ में अण्डा सेवन करने वाले कुछ स्फूर्ति अनुभव करें किन्तु आगे चलकर उन्हें मधुमेह, हृदयरोग, एग्जीमा, लकवा जैसी त्रासद बीमारियाँ भोगनी पड़ती है। अण्डा कोलेस्टेरोल का सबसे बड़ा अभिकरण माना जाता है, माँस भी इससे कुछ ही कम है। कोलेस्टेरोल का यह अतिरिक्त भाग रक्तवाहिनियों की भीतरी सतह पर जम जाता है और उन्हें संकरी कर देता है। परिणामतः रक्तप्रवाह में अवरोध उत्पन्न हो जाता है और उच्च रक्त चाप एवं हृदयाघात जैसे भयावह रोग उत्पन्न हो जाते हैं। आँतों का अलसर अपेंडिसाइटिस और मलद्वार का कैंसर भी माँसाहारियों में अति सामान्य होता है। माँसाहार से रक्त में यूरिक एसिड की मात्रा बढ़ जाती है जो जोड़ों में जमा होकर गठिया जैसे उत्पीड़क रोगों को जन्म देता है। सामिष भोजन के निरन्तर सेवन से पेचिस, मंदाग्नि आदि रोग हो जाते हैं। कब्ज रहने लगता है, जो अन्य अनेक रोगों को जन्म देता है । आमाशय दुर्बल हो जाता है और आँतें सड़ने लग जाती है। वास्तव में मनुष्य का पाचन संस्थान शाकाहार के अनुरूप ही संरचित हुआ है, माँसाहार के अनुरूप नहीं। त्वचा की स्वस्थता के लिए विटामिन-ए की आवश्यकता रहती है जो टमाटर, गाजर, हरी सब्जी आदि में उपलब्ध होता है। माँसाहार विटामिन शून्य आहार है, अतः एग्जीमा आदि अनेक त्वचा रोग हो जाते हैं, मुंहासे निकल आते हैं। मासिक धर्म सम्बन्धी स्त्री रोगों की अधिकता भी माँसाहारियों में ही पायी जाती है। माँसाहार मानव देह की रोग प्रतिरोधक शक्ति को भी कम कर देता है। परिणामतः रोगी साधारण से रोग का सामना भी नहीं कर पाता और रोग बढ़ते हुए जटिल होता जाता है। एक रोग अन्य अनेक रोगों को अपना संगी बनाने लगता है। माँसाहार बुद्धि को मन्द तथा स्मृति को कुण्ठित भी कर देता है। शारीरिक व मानसिक विकास भी सामिष आहार के कारण बाधित हो जाता है। माँसाहार के विकार : रोगों के लिए अधिक जिम्मेदार : एन सामिष पदार्थ स्वयं ही स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं, रोगों के उत्पादक होते हैं। तिस पर भी यह और बढ़ोत्तरी की बात है कि वे प्रायः दूषित और विकृत अवस्था में प्राप्त होते हैं। यह स्थिति माँसाहार को और अधिक घातक बना देती है। "करेला पहले ही कड़वा और ऊपर से नीम चढ़ा" वाली कहावत इस प्रसंग उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ में सर्वथा सार्थक और समीचीन प्रतीत होती है विशेषता इसके साथ यह भी जुड़ी रहती है कि इन पदार्थों का दूषित और विकृत होना साधारणतः दृष्टिगत भी नहीं होता, उसे पहचाना नहीं जा सकता। अतः ऐसे हानिप्रद पदार्थों से आत्म रक्षा के प्रयत्न की आवश्यकता भी नहीं अनुभव होती और उनसे बचा भी नहीं जा सकता है। उदाहरणार्थ ब्रिटेन में लगभग ५० लाख लोग प्रतिवर्ष सालेमोनेला से प्रभावित होते हैं। अण्डे व चिकिन की सड़ी हुई। अवस्था में उनका उपभोग करने से यह फूडपोइजनिंग की घातक स्थिति बनती है। कुक्कुट शाला के १२ प्रतिशत उत्पाद इस प्रकार दूषित पाये जाते हैं। गर्भवती महिलाओं का गर्भपात और गर्भस्थ शिशु का रुग्ण हो जाना भी इसके परिणाम होते हैं। अण्डा ८° सेलसियस से अधिक तापमान में रहे तो १२ घण्टे के बाद वह सड़ने लग जाता है। भारत जैसे उष्ण देश में तापमान अधिक ही रहता है और अण्डा कब का है, यह ज्ञात नहीं हो पाता ऐसी स्थिति में विकृत अण्डे की पहचान कठिन कार्य हो जाती है। न्यूनाधिक रूप में ये दूषित ही मिलते हैं। अण्डे का जो श्वेत कवच या खोल होता है, उसमें लगभग १५ हजार अदृश्य रंध्र (छेद) होते हैं जिनमें से अण्डे का जलीय भाग वाष्प बनकर उड़ जाता है और तब अनेक रोगाणु भीतर प्रविष्ट हो जाते हैं और वे अण्डे को रोगोत्पादक बना देते हैं। एक अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि अमेरिका में चालीस हजार लोग प्रतिवर्ष दूषित अण्डों व मॉस के सेवन से रुग्ण हो जाते हैं! माँसाहार प्राप्ति के प्रयोजन से जिन पशुओं की हत्या की जाती है, उनका स्वस्थ परीक्षण नहीं किया जाता। व्यावसायिक दृष्टिकोण भी रोगी पशुओं को इस निमित्त निर्धारित कर देता है। पशुओं में (अण्डों में भी) प्राय: कैंसर, ट्यूमर आदि व्याधियां होती है। माँसाहारी इस सबसे परिचित होता नहीं और दुष्परिणामतः दूषित माँस उदरस्थ होकर उपभोक्ता को इसे ही रोग उपहार में दे देता है। माँसाहारी जब स्वयं चिन्तन करें कि वे कैसे अंधकूप की डगर पर बढ़े चले जा रहे हैं। पशु जब वध के लिए वधशाला लाए जाते हैं तो वे बड़े भयभीत और आतंकित हो जाते हैं प्राकृतिक रूप से मल विसर्जित हो जाता है जो रक्त में मिलकर उसे विषाक्त बना देता है। इसी प्रकार माँस के मल मूत्र, वीर्य, रक्तादि अनेक हानिकारक पदार्थ मिल जाते हैं। वध से पूर्व भी पशु छटपटाता है, भागने का प्रयत्न करता है, उसके नेत्र लाल हो जाते हैं, नथुने फड़कने लगते हैं, मुँह से फेन आने लगते हैं। इस असामान्य अवस्था में उसके शरीर में "एडरी- नालिन" नामक पदार्थ उत्पन्न हो जाता है जो उसके माँस में मिश्रित हो जाता है। इस माँस के सेवन से यह घातक पदार्थ माँसाहारी के शरीर में जाकर अनेक उपद्रव करता है, उसे रूग्ण बना देता है।Page Navigation
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