Book Title: Mansahar ya Vyadhiyo ka Aagar
Author(s): Pushkar Muni
Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36020DS SanD.. Do 500Rago जन-मंगल धर्म के चार चरण ६१७ 17 मॉसाहार या व्याधियों का आगार ! 10000-30 -उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. पौष्टिकता की एक सशक्त आन्ति : संगठन (डब्ल्यू. एच. हो.) के बुलेटिन की चर्चा करते हुए डॉ. टुण्ड्रा प्रदेश हिमाच्छादित ऐसा भूभाग है, जहाँ वनस्पति का नेमीचन्द ने उल्लेख किया है कि-"माँसाहार से मनुष्य के जिस्म नामो-निशान भी नहीं। सर्वत्र श्वेत ही श्वेत रंग व्याप्त रहता है। नहीं। मनव पती मवेत ग व्याप्त रहता है। (शरीर) में १६० बीमारियाँ दाखिल हो सकती है, अड्डा जमा हरित वर्ण के दर्शन भी नहीं होते हैं। प्रकृति ने अपनी वनस्पति सकती हैं। ख्याल रहे बीमारियों की यह संख्या कम नहीं है। इनमें शून्यता से वहाँ की एस्कीमो जाति को माँसाहारी बना दिया है। माँस स कुछ तो ऐसी हैं जो जानलेवा है और कुछ लाइलाज है।"१ भक्षण ही उनकी जीवनी शक्ति का एक मात्र आधार है। एस्किमो वनस्पात जगत् प्राणाजगत् क रागा का कोई प्रभाव ग्रहण नहीं लोगों की आयु मात्र तीस वर्ष तक सीमित रहती है। है न एक करता अतः शाकाहार सर्वथा शुद्ध और निरापद होता है। किन्त चौंका देने वाला तथ्य! किन्तु इससे भी अधिक चौंकाने वाली तो पशु को अपने रोग भी होते हैं, वह अन्य स्रोतों से भी रोग ग्रहण यह भ्रांति है कि सामिष भोजन निरामिश की अपेक्षा कहीं अधिक कर लेता है और अपने इन रोगों को अपने माँस द्वारा उन मनुष्यों पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक है। सचमुच यह एक आधारहीन धारणा के शरीर में भी प्रविष्ट करा देता है, जो उसका आहार करते हैं। है। वस्तुस्थिति तो यह है कि माँसाहार आहार के समस्त प्रयोजनों माँसाहार इस प्रकार संकटपूर्ण बना रहता है। माँसाहार जनित रोग को पूर्ण ही नहीं कर पाता। आहार से शरीर की आवश्यकताएँ पूर्ण | "जूनीसिस" कहलाते हैं। ये जूनोसिस चार प्रकार के होते हैंहोनी चाहिए। इसमें वे सारे तत्व होने चाहिए जो मानवदेह को (१) डायरेक्ट जूनोसिस वे रोग है जो रुग्ण पशु के माँस । वर्धमान बनाने में, शक्ति प्रदान में, रोग प्रतिरोध में, दीर्घायु में, भक्षण से सीधे ही उत्पन्न हो जाते हैं (२) साइक्लो जूनोसिस में रोग स्वस्थ रखने में अपेक्षित समझे जाते हैं। माँसाहार में अनेक तत्व तो इस प्रकार सीधे अपने स्रोत से मानवदेह तक नहीं पहुँचता। किसी शून्यवत् हैं, जैसे कार्बोहाइड्रेट, फाइबर, विटामिन आदि। यह जीव जन्तु को रोग हो, उसका माँस अन्य पशु खाए और इस अन्य आहार ऊर्जा का भी कोई संबल स्रोत नहीं है। मूंगफली जैसा एक पशु के माँस का आहार जब मनुष्य करें तो यह पहले वाले जीव साधारण शाकाहारी पदार्थ जितनी मात्र से ५७० कैलोरी ऊर्जा देता जन्तु के रोग से ग्रस्त हो जाता है। टेपवार्म का रोग इसी प्रकार का है, उतनी ही मात्रा में माँस और अण्डा केवल ११४ और १७३ | होता है। यह साइक्लो या चक्रिक या आवर्ती इसी कारण कहा गया कैलोरी ऊर्जा दे पाता है। भला फिर इसे क्यों कर पौष्टिक आहार है। (३) रीढ़ विहीन जन्तुओं के सेवन से मेरा जनोसिस रोग होते माना गया। हैं, यथा प्लेग (४) जूनोसिस का चौथा प्रकार “सेपरो" होता है। वस्तुतः केवल माँसाहार पर निर्भर रहकर कोई व्यक्ति स्वस्थ इसमें पहले कोई रुग्ण जीव जन्तु अपने रोग के कीटाणु पेड़ पौधों एवं निरोग जीवन नहीं बिता सकता। अनेक महत्वपूर्ण और पर मिट्टी अथवा जल पर फैला देते हैं। अन्य पशु उनसे रोगग्रस्त अनिवार्य तत्वों के अभाव में वह अनेक रोगों से घिर जायेगा और हो जाते हैं। मनुष्य इन पशुओं से कीटाणु ग्रहण कर रुग्ण हो जाते उसकी बढ़ती हुई कार्यक्षमता सीमित रह जायेगी। हैं। लारवा, माइग्रन्स आदि रोग इसी प्रकार के होते हैं। रोगियों के एक व्यापक सर्वेक्षण से यह तथ्य प्रकाश में आया माँसाहार रोगों का जनक : है कि संक्रामक एवं घातक रोग शाकाहारियों की अपेक्षा - माँसाहारी देशों में ब्रिटेन का प्रमुख स्थान है। अनुभवों और माँसाहारियों में बहुलता के साथ मिलते हैं। एक और अन्तर इन दो दुष्परिणामों के आधार पर उस देश का बी. बी. सी. टेलीविजन प्रकार के रोगियों में यह पाया गया कि माँसाहारी रोगियों के ये स्वयं यह प्रचारित करने लगा है कि मानव जाति को माँसाहार रोग शाकाहारियों की अपेक्षा अधिक गम्भीर और तीव्र होते हैं। जनित घातक रोगों से सावधान रहना चाहिए। ये घातक रोग शाकाहारी अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ प्रतीत होते हैं। वे शान्त और मनुष्य को उस समय से ही ग्रस्त करने लग जाते हैं, जब वह मननशील भी होते हैं। जिन देशों में माँसाहार सामान्य और गर्भस्थ होता है। अमेरिका का एक सर्वेक्षण यह सूचना देता है कि | बहुप्रचलित है, वहाँ हृदयाघात, कैंसर, रक्तचाप, मोटापा, गुर्दे के वहाँ ४७ हजार बच्चे इस कारण जन्मजात रोगी होते हैं कि उनके रोग, कब्ज, अनेक प्रकार के संक्रामक रोग, जिगर के रोग, पथरी अभिभावक, विशेषतः माता माँसाहारी होती है। माँ का रक्त इस आदि घातक रोग अत्यधिक हैं। असंख्यजन इन रोगों से बुरी तरह आहार के कारण दूषित और विकृत हो जाता है और इस रक्त से । ग्रस्त मिलते हैं। भारत, जापान आदि देशों में इन रोगों का पोषण पाकर गर्भस्थ शिशु में रोगों का बीजपवन हो जाता है। ये व्यापकत्व अपेक्षाकृत कम है। यहाँ माँसाहार की प्रवृत्ति भी इतनी बच्चे आयु पाकर भी पूर्ण स्वस्थ नहीं रह पाते। विश्व स्वास्थ्य अधिक नहीं है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि इन घातक रोगों R-OSOOPARDAS3008 EDERAND togaigarpan 500ROSO900 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ का माँसाहार से सीधा सम्बन्ध है। आस्ट्रेलिया विश्व का सर्वाधिक माँसाहार वाला देश है। वहाँ १३० किलोग्राम प्रतिवर्ष प्रतिव्यक्ति खपत तो अकेले गोमांस की ही मानी जाती है। इसी देश में आँतों का कैंसर भी सबसे अधिक होता है। इस समस्या के समाधान स्वरूप विशेषज्ञ चिकित्सकों द्वारा शाकाहार को अधिकाधिक अपनाए जाने का परामर्श दिया जा रहा है। अमेरिका के डॉक्टर इ. बी. ऐमारी और इंगलैण्ड के डॉ. इन्हा ने तो अपनी पुस्तकों में यह स्पष्ट स्वीकारोक्ति भी की है कि अण्डा जहर है। डॉ. आर. जे. विलियम्स (ब्रिटेन) की मान्यता है कि सम्भव है कि आरम्भ में अण्डा सेवन करने वाले कुछ स्फूर्ति अनुभव करें किन्तु आगे चलकर उन्हें मधुमेह, हृदयरोग, एग्जीमा, लकवा जैसी त्रासद बीमारियाँ भोगनी पड़ती है। अण्डा कोलेस्टेरोल का सबसे बड़ा अभिकरण माना जाता है, माँस भी इससे कुछ ही कम है। कोलेस्टेरोल का यह अतिरिक्त भाग रक्तवाहिनियों की भीतरी सतह पर जम जाता है और उन्हें संकरी कर देता है। परिणामतः रक्तप्रवाह में अवरोध उत्पन्न हो जाता है और उच्च रक्त चाप एवं हृदयाघात जैसे भयावह रोग उत्पन्न हो जाते हैं। आँतों का अलसर अपेंडिसाइटिस और मलद्वार का कैंसर भी माँसाहारियों में अति सामान्य होता है। माँसाहार से रक्त में यूरिक एसिड की मात्रा बढ़ जाती है जो जोड़ों में जमा होकर गठिया जैसे उत्पीड़क रोगों को जन्म देता है। सामिष भोजन के निरन्तर सेवन से पेचिस, मंदाग्नि आदि रोग हो जाते हैं। कब्ज रहने लगता है, जो अन्य अनेक रोगों को जन्म देता है । आमाशय दुर्बल हो जाता है और आँतें सड़ने लग जाती है। वास्तव में मनुष्य का पाचन संस्थान शाकाहार के अनुरूप ही संरचित हुआ है, माँसाहार के अनुरूप नहीं। त्वचा की स्वस्थता के लिए विटामिन-ए की आवश्यकता रहती है जो टमाटर, गाजर, हरी सब्जी आदि में उपलब्ध होता है। माँसाहार विटामिन शून्य आहार है, अतः एग्जीमा आदि अनेक त्वचा रोग हो जाते हैं, मुंहासे निकल आते हैं। मासिक धर्म सम्बन्धी स्त्री रोगों की अधिकता भी माँसाहारियों में ही पायी जाती है। माँसाहार मानव देह की रोग प्रतिरोधक शक्ति को भी कम कर देता है। परिणामतः रोगी साधारण से रोग का सामना भी नहीं कर पाता और रोग बढ़ते हुए जटिल होता जाता है। एक रोग अन्य अनेक रोगों को अपना संगी बनाने लगता है। माँसाहार बुद्धि को मन्द तथा स्मृति को कुण्ठित भी कर देता है। शारीरिक व मानसिक विकास भी सामिष आहार के कारण बाधित हो जाता है। माँसाहार के विकार : रोगों के लिए अधिक जिम्मेदार : एन सामिष पदार्थ स्वयं ही स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं, रोगों के उत्पादक होते हैं। तिस पर भी यह और बढ़ोत्तरी की बात है कि वे प्रायः दूषित और विकृत अवस्था में प्राप्त होते हैं। यह स्थिति माँसाहार को और अधिक घातक बना देती है। "करेला पहले ही कड़वा और ऊपर से नीम चढ़ा" वाली कहावत इस प्रसंग उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ में सर्वथा सार्थक और समीचीन प्रतीत होती है विशेषता इसके साथ यह भी जुड़ी रहती है कि इन पदार्थों का दूषित और विकृत होना साधारणतः दृष्टिगत भी नहीं होता, उसे पहचाना नहीं जा सकता। अतः ऐसे हानिप्रद पदार्थों से आत्म रक्षा के प्रयत्न की आवश्यकता भी नहीं अनुभव होती और उनसे बचा भी नहीं जा सकता है। उदाहरणार्थ ब्रिटेन में लगभग ५० लाख लोग प्रतिवर्ष सालेमोनेला से प्रभावित होते हैं। अण्डे व चिकिन की सड़ी हुई। अवस्था में उनका उपभोग करने से यह फूडपोइजनिंग की घातक स्थिति बनती है। कुक्कुट शाला के १२ प्रतिशत उत्पाद इस प्रकार दूषित पाये जाते हैं। गर्भवती महिलाओं का गर्भपात और गर्भस्थ शिशु का रुग्ण हो जाना भी इसके परिणाम होते हैं। अण्डा ८° सेलसियस से अधिक तापमान में रहे तो १२ घण्टे के बाद वह सड़ने लग जाता है। भारत जैसे उष्ण देश में तापमान अधिक ही रहता है और अण्डा कब का है, यह ज्ञात नहीं हो पाता ऐसी स्थिति में विकृत अण्डे की पहचान कठिन कार्य हो जाती है। न्यूनाधिक रूप में ये दूषित ही मिलते हैं। अण्डे का जो श्वेत कवच या खोल होता है, उसमें लगभग १५ हजार अदृश्य रंध्र (छेद) होते हैं जिनमें से अण्डे का जलीय भाग वाष्प बनकर उड़ जाता है और तब अनेक रोगाणु भीतर प्रविष्ट हो जाते हैं और वे अण्डे को रोगोत्पादक बना देते हैं। एक अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि अमेरिका में चालीस हजार लोग प्रतिवर्ष दूषित अण्डों व मॉस के सेवन से रुग्ण हो जाते हैं! माँसाहार प्राप्ति के प्रयोजन से जिन पशुओं की हत्या की जाती है, उनका स्वस्थ परीक्षण नहीं किया जाता। व्यावसायिक दृष्टिकोण भी रोगी पशुओं को इस निमित्त निर्धारित कर देता है। पशुओं में (अण्डों में भी) प्राय: कैंसर, ट्यूमर आदि व्याधियां होती है। माँसाहारी इस सबसे परिचित होता नहीं और दुष्परिणामतः दूषित माँस उदरस्थ होकर उपभोक्ता को इसे ही रोग उपहार में दे देता है। माँसाहारी जब स्वयं चिन्तन करें कि वे कैसे अंधकूप की डगर पर बढ़े चले जा रहे हैं। पशु जब वध के लिए वधशाला लाए जाते हैं तो वे बड़े भयभीत और आतंकित हो जाते हैं प्राकृतिक रूप से मल विसर्जित हो जाता है जो रक्त में मिलकर उसे विषाक्त बना देता है। इसी प्रकार माँस के मल मूत्र, वीर्य, रक्तादि अनेक हानिकारक पदार्थ मिल जाते हैं। वध से पूर्व भी पशु छटपटाता है, भागने का प्रयत्न करता है, उसके नेत्र लाल हो जाते हैं, नथुने फड़कने लगते हैं, मुँह से फेन आने लगते हैं। इस असामान्य अवस्था में उसके शरीर में "एडरी- नालिन" नामक पदार्थ उत्पन्न हो जाता है जो उसके माँस में मिश्रित हो जाता है। इस माँस के सेवन से यह घातक पदार्थ माँसाहारी के शरीर में जाकर अनेक उपद्रव करता है, उसे रूग्ण बना देता है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2050bacha.se.daoad.com Cop860 । जन-मंगल धर्म के चार चरण ६१९ ।। ब्रेनबग नामक एक कीड़ा ऐसा होता है जो पशु को काटता है। माँसाहार का भला ऐसा करिश्मा कहाँ! और इससे पशु पागल हो जाता है। किन्तु पागलपन का यह प्रभाव बात प्रथम विश्व युद्ध की है जब डेनमार्क की नाकाबंदी कर अस्तित्व में रहते हुए भी लम्बे समय तक अप्रकट रूप में रहता है। दी गई थी। उस देश में खाद्य संकट उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक ही कभी-कभी तो इसमें दस वर्षों का समय भी बीत जाता है कि सभी था। तब वहाँ माँसाहार बन्द कर दिया गया। अन्न पर देशवासियों को वह पशु पागल लगने लगे। इसके पूर्व भी पशु रोगी तो हो चुका को रखा गया। इस व्यवस्था के समय एक समय एक वर्ष में वहाँ होता है। यदि इसका माँस आहार में प्रयुक्त हो जाए (जो कि प्रायः की मृत्यु दर ३४ प्रतिशत कम हो गयी थी। द्वितीय विश्व युद्ध के होता ही है) तो उस माँसाहारी को भी वही रोग हो जाता है। दौरान ऐसी स्थिति देनमार्क में भी आयी। मॉस टी के कारण वहाँ माँसाहार के साथ वेक्टीरिया की भी बड़ी भारी समस्या रहती है।। भी रक्त संचार सम्बन्धी रोगों में उल्लेखनीय कमी आई। इन बेक्टीरियाँ रक्त में अतिशीघ्र ही विकसित हो जाते हैं। वधोपरान्त घटनाओं ने विश्व को माँसाहार विरोधी सोच के लिए प्रेरित किया। तुरन्त ही माँस में निहित रक्त बेक्टीरिया ग्रस्त होकर सड़ने लग इसी समय ब्रिटेन में भी माँस आपूर्ति में कमी आयी। सार्वजनिक जाता है। इस दूषित माँस का आहार करने वाले चाहे उसे कितना स्वास्थ्य में इससे वहाँ बड़ी प्रगति हुई। शिशु मृत्यु दर में कमी आने ही ताजा माने, किन्तु माँस के साथ उनके शरीर में बेक्टीरिया भी 1 के साथ-साथ वहाँ रक्ताल्पता के रोग में भी भारी गिरावट आयी। पहुंच जाते हैं। मांस तो पचकर समाप्त हो जाता है, किन्तु ये प्रमाण है माँसाहार से शाकाहार की श्रेष्ठता के। माँसाहार बेक्टीरिया पनपते ही रहते हैं जो आजीवन माँसाहारी का पीछा व्याधियों का आगार है तो शाकाहार रोग मुक्ति का द्वार है। नहीं छोड़ते और भाँति-भांति के घातक और भयावह रोगों को उत्पन्न करते रहते हैं। मानसिक पतन का आधार : माँसाहार इन सभी परिस्थितियों से यही निष्कर्ष निकलता है कि सामिष आहार का उद्देश्य शरीर के विकास तक ही सीमित नहीं होता, भोजियों को यह जान लेना चाहिए कि वे केवल माँस नहीं, दूषित उसका प्रयोजन मन के विकास का भी रहता है। शाकाहार द्वारा तो माँस आदि का उपभोग करते हैं और वह संकट से मुक्त नहीं है। यह शर्त पूर्ण हो जाती है किन्तु माँसाहार इस दिशा में सक्रिय नहीं जैसा कि पूर्व पंक्तियों में वर्णित है शाकाहार ऐसे सभी संकटों से है। आहार से मानसिक, मानसिक से बौद्धिक और अध्यात्मिक मुक्त है। वही विवेकशीलजनों के लिए चयन योग्य है। माँस मनुष्य उन्नति की सिद्धि होनी चाहिए। श्रीमद् भागवत् में भोजन को के आहार हेतु बना ही नहीं। अण्डा तो किसी के लिए भी खाने की वर्गीकृत कर तीन श्रेणियों में रखा गया हैवस्तु नहीं है, वह तो प्रजनन प्रक्रिया की एक अवस्था विशेष है। १. सात्विक भोजन उसे खाद्य रूप में प्रकृति ने बनाया ही नहीं। वास्तविकता यह है कि २. राजसिक भोजन और अण्डा, माँस, मछली आदि सभी माँसाहार मनुष्य के लिए भोज्य ३. तामसिक भोजन रूप में अप्राकृतिक पदार्थ हैं। इन्हें आहार रूप में ग्रहण करना अप्राकृतिक कृत्य है जो अपने परिणामों में निश्चित रूप से घातक सात्विक भोजन में फल, सब्जी, अन्न, दलहन (दालें) दूध, मेवे, और हानिप्रद ही सिद्ध होता है। मक्खन इत्यादि सम्मिलित होते हैं और इस प्रकार का भोजन मनुष्य की आयु और शक्ति को बढ़ाने वाला होता है। यह शक्तिवर्धक भी बेहतर क्या है : माँसाहार अथवा शाकाहार : होता है और मानवोचित मनोवृत्तियों को बढ़ावा देता है। आहारी प्रबुद्धजन धीरे-धीरे माँसाहार के गुणगान को मिथ्या और को सात्विक भोजन सुख, शांति, करुणा, अहिंसा की भावना से शाकाहार के औचित्य को स्वीकारने लगे हैं। अमेरिका के हृदय रोग परिपूर्ण करता है। यह मन को राक्षसी गलियों में विचरण नहीं विशेषज्ञ डॉ. व्हाइट सन् १९६४ ई. में भारत आए। काश्मीर में कराता। मनोमस्तिष्क की पतन से रक्षा करने वाला यह एक सबल उनकी भेंट वहाँ के आदिवासी हुंजा कबीलों से हुई। उन्हें आश्चर्य साधन है। राजसिक भोजन में अति गर्म, तीखे, चटपटे, खट्टे, हुआ कि हुंजा कबीलों में अनेक लोग १० से ११0 वर्ष की आयु तीक्ष्ण मिर्च-मसाले युक्त व्यंजन सम्मिलित होते हैं। ये रूखे और के हैं और वे सभी पूर्णतः स्वस्थ हैं। डॉ. व्हाइट ने १० वर्ष से जलन पैदा करने वाले पदार्थ होते हैं। यह भोजन उत्तेजना उत्पन्न उच्च आयु के २५ हुंजाओं का परीक्षण किया और पाया कि उनमें करने व बढ़ाने वाला होता है। यह रोग, दुःख, चिन्ता व तनाव को से एक भी रक्तचाप या हृदय रोग से पीड़ित नहीं है। उन्होंने अपना | जन्म देता है। निकृष्ट कोटि का भोजन होता है-तामसिक भोजन! शोध लेख अमरीका की शीर्ष पत्रिका "हार्टजर्नल' में प्रकाशित बासी, सड़े-गले, नीरस, अधपके, दुर्गे-पयुक्त खाद्य पदार्थ इस श्रेणी किया और इस लेख में उन्होंने हुंजा जाति के लोगों में हृदय रोग में आते हैं। तामसिक भोजन क्रोध, हिंसा, विद्वेष का जागृत और नहीं होने का श्रेय उनकी आहार प्रणाली को दिया। यह सारी की प्रबल बनाता है। यह भोजन मन का पतन करता है, कुसंस्कारों की सारी जाति शाकाहारी है। ओर उन्मुख करता है, बुद्धि को भ्रष्ट करता है, चरित्र का नाश FORESO 19020 Tagga 0000000000000000 0 00000 0 0000-0D DAD R Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1620 उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ / / करता है, रोगों को उत्पन्न करता है, आलस्य और निष्क्रियता का माँसाहारी बना देती है। शिशु मन से शांति, मैत्री, करुणा और अभिशाप देता है। शाकाहार प्रथम वर्ग का सात्विक भोजन है और अहिंसा का प्रतीक होता है। जब उसे पहली बार माँसाहार कराया माँसाहार इस हीन कोटि का तामसिक भोजन है। आदर्श भोजन तन जाता है तो उसे वह रुचिकर प्रतीत नहीं होता। इसके पीछे की मन और आत्मा का विकास करता है, स्नेह, प्रेम, दया, करुणा, हिंसा, क्रूरता उसे विचलित करती है। उसे जानकर इस कुपथ पर शांति, अहिंसा का विस्तारक होता है। इस कसौटी पर सामिष } लगाया जाता है। यही षड्यन्त्र या दुरभिसंधि है भावी पीढ़ी को आहार खरा नहीं उतरता। कहा जाता है कि किसी व्यक्ति की रुचि / भ्रष्ट करने की। क्या अभिभावकों का यही कर्तव्य है, अपनी संतति का व्यंजन जानकर उसके चरित्र, आचरण और मनोवृत्तियों का के प्रति। पता लगाया जा सकता है। जैसा भोजन वह करता है-वैसा ही राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का छोटा पुत्र गम्भीर रूप से रुग्ण था। उसका आभ्यन्तरिक व्यक्तित्व होता है, वैसा ही उसका व्यवहार मरणासन्न शिशु के लिए चिकित्सकों ने माँस का सूप निर्धारित होता है। माँसाहारियों के विषय में कहा जा सकता है कि वे प्रायः किया। बापू से कहा गया कि बच्चे को बचाना हो तो यही एक क्रूर, क्रोधी, अकरुण, हिंसाप्रिय, निमर्म और हृदयहीन होते हैं। उपाय है। किन्तु बापू का दृढ़ निश्चय दृढ़तर हो गया। उन्होंने कहा ग्वालियर में 400 बंदियों का सर्वेक्षण किया गया था। इनमें से कि चाहे जो परिणाम हो बच्चे को हम माँस का सूप नहीं देंगे। यह 250 माँसाहारी और 150 शाकाहारी थे। माँसाहारी बन्दियों में से बापू की कठोर परीक्षा थी, जिसमें वे सफल हुए। बच्चे के प्राण 85 प्रतिशत ऐसे थे जो अशान्त, अधीर, क्रोधी और कलह प्रिय चमत्कारिक रूप में, बिना सूप दिए ही बच गये। जहाँ संकल्प की थे। हिंसा में वे कुछ भी आपत्तिजनक नहीं मानते थे। किन्तु दृढ़ता हो, वहाँ कुछ भी असम्भव नहीं! शाकाहारी बन्दियों में से 90 प्रतिशत शान्तिप्रिय प्रसन्नचित्त, दयालु, सहानुभूतिपूर्ण, संवेदनशील थे। कहा जा सकता है कि माँसाहार आवश्यकता इस बात की है कि भ्रांतियों के कुहासे से बाहर असुरत्व का मार्ग है तो शाकाहार देवत्व के समीप पहुँचाता है। निकल कर हम माँसाहार को उसके नग्न रूप में देखें, पहचानें मनुष्य को मानव बनाने वाला माँसाहार नहीं, शाकाहार ही हो उसके राक्षसत्व को और तब उसका संग न करने का निश्चय करें। सकता है। माँसाहार का क्षय हो! शाकाहार की जय हो!! इस व्याधि के केन्द्र का परित्याग जितना ही शीघ्र किया जायेगा। उतना ही शुभकारी होगा। जो जाग गये हैं उनका दायत्वि (नैतिक) मनुष्य स्वाभाविक रूप से सामिष नहीं होता। उसका जन्म है कि गहरी नींद में सोयों को झिंझोड़ कर जगायें। यदि हमने एक निरामिष रूप में ही होता है। दुग्ध जैसा निर्दोष और पवित्र पदार्थ माँसाहारी को भी इस मार्ग से हटाकर शाकाहारी बनाया तो यह उसका पोषण करता है। यह तो एक दुरभिसंधि है जो उसे एक पुण्य कार्य होगा। 20040600202010050002 आत्म पहचानो मत फँसो मोह मंझार / आत्म-पहचानो ॥टेर॥ भौतिक सुख को मानते अपने पर यह सारे झूठे सपने // कहते जगदाधार / आत्म पहचानो // 1 // धर्म पुण्य से रहते दूरे / पाप कर्म करने में शूरे // जाते नरक द्वार / आत्म पहचानो // 2 // धर्म ध्यान में चित्त लगाना / अपने आपको जल्दी जगाना || कहे "पुष्कर" अनगार | आत्म पहचानो // 3 // -उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि (पुष्कर-पीयूष से) सन्दर्भ स्थल 1. शाकाहार-मानव सभ्यता की सुबहः विश्व स्वास्थ्य संगठनः बुलेटिन नं. 637 2. ब्रिटेन के डॉ. एम. रॉक 3. पोषण का नवीनतम ज्ञान (डॉ. इ. बी. एमारी): रोगियों का प्रकृति (डॉ. इन्हा) KAROORKERUARo0ORO/ 2HOTO 0.00000000000000000000000 SANGA PORDERIAntarnaboheroSODE OG D000.00ARPURaraPANDoor 2000:00:00:Swait aliDilavale 00000000000000000000000000000000000000000