Book Title: Manaviya me Nari ka Sthan
Author(s): Indira Joshi
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ PARAMA गृहिणी या नारी है । अनेक परिवारों से मुहल्ला, मुहल्लों से गाँव बनते हैं । गाँव जब बड़ा आकार ग्रहण करते हैं तो 'शहर' कहाते हैं। धरती पर रहने वाले अरबों मानव प्राणी इसी भांति घरों, मुहल्लों, गाँवों, शहरों, राष्ट्रों में रहते हैं—रहना चाहते हैं । पर समाज का लघुरूप या विग्रह घर है। जिस घर में गृहलक्ष्मी का समुचित मान-सम्मान या 'पूजा' होती है उसमें मनुस्मृतिकार मनु का कहना है कि वहाँ सभी देवता रमण करते हैं। विद्या की देवी सरस्वती एवं धन-धान्य की देवी लक्ष्मी दोनों का ही ऐसे घरो में निवास रहता है । इस सारी सुख-समृद्धि की धुरी, गृहिणी, गृहलक्ष्मी या नारी ही है । मनु ने यह भी कह दिया है कि जिस घर में या समाज में नारी की अपूजा या अवमानना होती है, वहाँ सभी प्रकार की क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं। अतः तनिक कल्पना करें कि बिना नारी के इस समस्त जगती का क्या मुल्य रह जाता? गुजराती के यशस्वी कवि मेघाणी (झवेरचन्द मेघाणी) ने 'शिवाजी नी लोरी' नामक एक बड़ी ही ओजस्विनी कविता रची है। शिशु शिवाजी को, उनकी माता जीजाबाई, पालने में झुलातो-झुलाती, वीर रस से ओतप्रोत कविताएँ मधुर लोरियों में गाकर सुलाती हैं। सूरदास ने यशोदा द्वारा गाई जाने वाली लोरियाँ बड़ी ही मार्मिक शैली में लिखी हैं। उन्हीं लोरियों के कारण श्री कृष्ण सोलह कला वाले अवतार हुए और श्रीकृष्ण के बारे में लोगों ने यहाँ तक कहा है कि 'कृष्णस्तु भगवान स्वयम्' (कृष्ण तो साक्षात् भगवान हैं)। करुणा और मैत्री का सन्देश विश्व-भर में फैलाने वाले महात्मा बुद्ध और महात्मा महावीर, 'भगवान' उपाधि से विभूषित हुए । इन दोनों ही महात्माओं की परम पूज्या माताओं की आदि प्रेरणा द्वारा ही वे आगे चलकर मानव जाति के पथ-प्रदर्शक बने। सारतः माता ही शिशु की प्रथम गुरु है। इस देश की अति प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा में. नारी के रूप में ही सष्टि की नियामक आद्य शक्तियों एवं ऋद्धि-सिद्धियों की उपासना एवम् वन्दना की गई है। विद्या और वाणी की देवी सरस्वती, जिसके हाथों में वीणा और पूस्तक, अखिल कलाओं एवं अखिल वाङमय के प्रतीक हैं-वैभव एवम् समृद्धि के प्रतीक दो गजाधिपतियों द्वारा अभिषिक्त एवम् रत्नजटित मकट एवं वस्त्राभूषणों द्वारा अलंकृत अपने चारों हाथों से धन और धान्य बरसाती हुई सांसारिक वैभव और ऐश्वर्य की देवी, लक्ष्मी, तथा दशों भुजाओं में अमोघ, दशायुधों को धारण करने वाली महाप्रचण्ड तेजस्विनी, वीरता और शौर्य की देवी दुर्गा । इन तीनों शक्ति-प्रतीकों द्वारा ध्वनित अभिप्राय के अनुसार नारी अथवा जगज्जननी ही सभी आध्यात्मिक एवम् भौतिक सुख-समृद्धि की उद्गम है। इसीलिए उसका सम्मान, भारतीय संस्कृति में सर्वोपरि एवम् सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। मानव जाति के सभ्यता एवम् संस्कृति के उद्गम, विकास एवं अभ्युदय की, सुदीर्घ यात्रा में, नारी का स्थान और महत्त्व, सदा ही शीर्ष एवं निर्णायक सिद्ध हुआ है। यदि हम विवेचित विषय के आलोक में सहस्रों-सहस्रों वर्षों से चली आने वाली भारत की सभ्यता एवं संस्कृति की कहानी को, बीजरूप में दुहरा कर देखेंगे तो उसमें हमें आदि से अन्त तक नारी की गरिमा अनवरत एवम् अक्षुण्ण रूप से दृष्टिगोचर होगी। जिन्हें वैदिक वाङमय के बारे में थोडी बहत भी जानकारी है, वे भलीभाँति जानते हैं कि वेदों के सूत्रों के सृष्टाओं में अनेक विदूषी नारियाँ भी थीं। उनकी चर्चा अगस्त्य, अत्रि, याज्ञवल्क्य, वशिष्ठ आदि की, विद्यालोक से दीप्त अ गिनियों के रूप में, बहुचर्चित और बहुश्रुत रही है। महर्षि अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा ने ऋग्वेद के प्रथम मण्डल की २८४ | छठा खण्ड : नारी समाज के विकास में जैन साध्वियों का योगदान www.jainelibra

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6