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साध्वारत्न पुष्पावती अभिनन्दन ग्रन्थ
मानवीय विकास में नारी का स्थान, महत्व और मूल्यांकन
-प्रो. डा. इन्दिरा जोशी
एम० ए., पी-एच० डी०, डी० लिद०, (अध्यक्ष-हिन्दी विभाग, जोधपुर विश्वविद्यालय जोधपुर)
सृष्टि का व्यापार इतना अद्भुत और बहुरूपी है कि उस पर विचार मात्र करने पर मानवबुद्धि चकरा जाती है । अनन्त, अपार आकाश में न जाने कितने ग्रह, उपग्रह और नक्षत्र चक्कर लगा रहे हैं । जिस विश्व से हम परिचित हैं वह केवल उतना है, जितना कि हमारे सूर्यदेव के चारों ओर परिक्रमा में रत है। कहा जाता है कि ऐसे सूर्यमण्डल अखिल सृष्टि में अनेक हैं। हमारे सूर्यमण्डलीय दिग्मण्डल के बीच, हमारे भू-मण्डल की स्थिति नगण्य-वत् जान पड़ती है । पर हमारे लिए तो वह सर्वाधिक महत्वशाली है। क्योंकि उसी पर तो हमारी स्थिति और अस्तित्व है । पृथ्वी का एक पर्याय है 'धरित्री या धरती' । 'धरती' होने के कारण धारण करना ही उसका धर्म है। इस धरती के जिस विशेष भाग, या जनपद पर हमने सबसे पहले अपनी आँखों खोली हैं, वही हमारे लिए अति पावन एवं पुण्य स्थल है। वही हमारी जन्म-भूमि है जिसकी प्रशस्ति में, पुरातन काल से ही हमारे महाकवियों ने भावभरी एवं ममत्वभरी वन्दनाएँ गाई हैं । संसार की सबसे पुरातन काव्यकृति वेदों में भी, उसकी प्रशंसा में सूक्तों की रचना की गई है। उन्हीं में एक है पृथ्वी-सूक्त । उसके उद्गाता ने गाया है ---"पृथ्वी मेरी माता है, मैं पृथ्वी का पुत्र है।" उसी के पार्थिव कणों से हमारा यह पार्थिव शरीर निर्मित हुआ है। अत: तत्वतः वही हमारी माता है । उसी का एक कौना या उपखण्ड हमारा राष्ट्र या देश है । जन्म-भूमि होने के कारण वह हमारे लिए स्वर्ग से भी बढ़कर गरिमामयी है। उसी के मान-सम्मान की रक्षा के लिए अपने प्राणों का विसर्जन कर देना ही हमारा पावन कर्त्तव्य है ।
यह धरती न जाने कितनी कोटियों के जंगम जीव-जन्तुओं को जीवन प्रदान करती है और उन्हें धारण करती है। इन जल, थल और नभ में विचरण करने वाले असंख्य छोटे बड़े, जीवधारियों में से एक है 'मानव' । उसे शेष सभी से अधिक विकसित प्राणी माना जाता है। उसे श्रेष्ठतम इसलिए माना गया है क्योंकि उसने विकास एवं प्रगति के पथ पर अभूतपूर्व उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं। सभ्यता और संस्कृति
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केवल मानव-जाति की विशिष्टताएँ हैं । ऐसे 'मानव' नामधारी प्राणी को जिसने जन्म दिया है, उस माता या जननी के गौरव और महत्व का कौन मूल्यांकन कर सकता है ? इसीलिए माता ही, इस वसुन्धरा धरणी का सबसे अनमोल रत्न है । एक प्रकार से वह धरती माता का ही लघुकाय 'विग्रह' (या प्रतिकृति) है। मानव-जाति को जन्म देने वाली जननी की इसीलिए बारम्बार स्तुति की गई है। सूक्तियों में 'जननी और जन्म-भूमि को स्वर्ग से भी अधिक गरिमामयी' कहा गया है । मानवी अस्तित्व की आदि कारण ही इस भांति 'नारी' है।
नारी की करुणा और उसकी परोपकारमयी वृत्ति की कोई सीमाएँ नहीं हैं । उसने अपने रक्त और अपनी मज्जा से 'मानव' को आकार या उसका भौतिक अस्तित्व प्रदान किया है। उसे अपनी कोख में उसने ही धारण किया और उसने उसे अपने हृदय के रक्त से पोषित करने तथा प्राण धारण करने योग्य बनाने एवं उसे जन्म देने में, अवर्णनीय आत्म-त्याग एवं तप का परिचय दिया है। मानव के जीवन के पहले पल से. बरसों तक नारी ने ही उसे अपने कलेजे का दूध पिलाकर बड़ा और बलशाली बनाया है। जब मानव अपने लघु-आकृति वाले 'शिशु-रूप' में होता है, तो वह अपने आप को कितना अधिक असहाय और निरुपाय अवस्था में पाता है। नारी अपने मातृ रूप में उसे अंगुली पकड़कर चलना सिखाती है और उसे 'सामाजिक प्राणी' कहलाने योग्य बनाती है। वही उसकी सर्वप्रथम भाषा गुरु है क्योंकि जिस बोली में बोलना या जिस बोली को समझना वह पहले-पहल सीखता है उसका नाम ही मातृ-भाषा है । संसार के हर मनुष्य की कोई न कोई 'मातृ भाषा' है, जो कि उसने अपनी 'माँ' से सीखी है। भाषा या वाणी मानव की श्रेष्ठता का पहला लक्ष्य है, जो सारी जंगम सृष्टि में, केवल उसे ही उपलब्ध है । पर यह वाणी का वरदान केवल माँ से ही प्राप्त है।
मानव संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी इसलिए ही है क्योंकि उसने अपनी विकास यात्रा में, सभ्यता और संस्कृति की मंजिलें पार कर ली हैं। सभ्यता का पहला पाठ, माँ या नारी ही पढ़ाती है। आधुनिक बाल-विज्ञान के विशेषज्ञों-विशेषतया मदाम माण्टेसरी का मत है कि शिशु की २१ वर्ष से ५ वर्ष तक की आयु उसकी समग्र शिक्षा-दीक्षा के लिए सर्वाधिक महत्व रखती है। इस कालान्तर में शिशु की मानसिक अवस्था सुक्ष्म से सूक्ष्म इंगितों एवं संस्कारों को ग्रहण करने की क्षमता रखती है। अतः जिन बालकों की माताएँ अपने शिशओं की देख-रेख और शिक्षा-दीक्षा की ओर सर्वाधिक ध्यान देती हैं, वे ही आगे चलकर महान और लोकनायक बनते हैं, क्योंकि प्रत्येक शिशु अपने इन प्रारम्भिक वर्षों में, अपनी माँ को ही गुरु रूप में पाता है और मानता है। वह अपनी पूरी आस्था के साथ के साथ माँ पर ही निर्भर करता है । गुरु भक्ति का प्रथम पाठ इस भाँति शिशु अपनी मातृ-गुरु से ही पढ़ता है।
भारत भूमि के गौरव और उसकी सभ्यता और संस्कृति की रक्षा का काम इस भाँति नारी या माता के कन्धों पर ही सदा-सर्वदा रहा है। सच पूछो तो सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में शिक्षा-दीक्षा का कार्य, पिता या पुरुष, बहुत ही कम कर पाता है । जब घर पर बालक की शिक्षा-दीक्षा की वह अवस्था सम्पूर्ण हो जाती है, जिसमें वह माँ पर आश्रित रहता है तब उसे 'गुरु-कूल' में भेजने और वहाँ उच्चतर एवं उच्चतम सांस्कृतिक योग्यता प्राप्त करने के कार्य को सम्पन्न करने की, हमारे देश में हजारों वर्षों से परम्परा चली आई है । आज भी देश में जहाँ-तहाँ 'गुरु-कुल' पाये जाते हैं । आधुनिक प्रणाली को ज्ञानविज्ञान की शिक्षा 'गुरुकुल' प्रणाली की पूरक तो हो सकती है किन्तु पर्याय नहीं। सारतः नारी या माता ही मानव अथवा पुरुष को प्रगति के पथ पर अग्रसर करने की प्रमुख भूमिका निभाती है। अतः उसका
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स्थान सदा से ही भारतीय समाज में और विश्व के सभी अन्य सभ्य-सुसंस्कृत समाजों में, सदा ही परम सम्माननीय एवं पुज्य रहा है।
आजकल 'सभ्यता' एवं 'संस्कृति' इन दोनों पदों को बहुत व्यापक एवं विविध रूपों में व्यवहृत किया जा रहा है पर यदि आप किसी से यों ही अकस्मात पूछ बैठे कि 'संस्कृति' क्या है ? तो वह उसका तुरन्त और तात्कालिक उत्तर न दे पाएगा। मानव सामाजिक प्राणी कहा गया है पर उसकी बडी विशिष्टता यह है कि वह सांस्कृतिक दृष्टि से एक समुन्नत प्राणी है । 'सांस्कृतिक' विशेषण संस्कृति से बना है और 'संस्कृति' पद का मूल है 'संस्कार' । किस भाँति बालक को सर्वप्रथम 'संस्कार' अपनी माता से प्राप्त होते हैं। विशेषतया उन संस्कारों का ग्रहण शिशु अपनी माँ से उस पाँच वर्ष तक के 'शैशव' में ग्रहण करने में, अत्यन्त आग्रही एवं दत्तचित्त रहता है जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है। बड़े-बड़े दार्शनिकों एवं विद्वानों ने 'संस्कृति' की विविध परिभाषाएँ दी हैं। उन सभी में आचार्य नरेन्द्रदेव की यह व्याख्या, सर्वाधिक सुस्पष्ट एवं सूग्राह्य है कि 'संस्कृति' सूविचारों की खेती है। खेती को हरी-भरी रखने
और सूफला बनाने के लिए किसान को पहले अपनी जमीन को परिष्कृत अथवा संशोधित करना पड़ता है। केवल ऐसी भूमि में ही उत्तम बीज बोये जा सकते हैं और वही अंकुरित होने की क्षमता रखते हैं। तत्पश्चात् उगे हुए पौधों को झाड़-झंखाड़ से रहित करना होता है । फिर उन्हें समयानुसार अच्छे पानी से सींचते रहना पड़ता है । किसान का यह काम अत्यन्त सावधानी, तत्परता एवं जागरूकता की अपेक्षा रखता है। कहना न होगा कि मानव को सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध और सक्षम बनाने के इस गरुतर कार्य में 'नारी' अथवा माता की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण है कि उसका केवल अनुमान ही किया जा सकता है। शब्दों में उसको व्यक्त किया जाना यदि असम्भव नहीं तो दुष्कर अवश्य है। इस दृष्टि से नारी का महत्त्व, मूल्यांकन से प्रायः परे ही जान पड़ता है। इसीलिए भारतीय संस्कृति में मां की महिमा उसकी एक प्रमुख जातीय विशिष्टता है जिस पर अधिकाधिक विवेचन सदा ही मंगलकारी एवं शिवंकर है।
हमारे देश में एक सूक्ति बहुत पुरातन काल से प्रचलित है : 'गृहिणी इति गृहः' । अर्थात् गृहिणी ही घर है। विना गृहिणी के घर को 'भूतों का डेरा' कहा गया है जो सर्वांश में सत्य है। यह तथ्य सत्य और शाश्वत है और वह भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों में मान्य रहा है और रहेगा। घर को बनाने में, उसे चलाने में और उसे सुन्दर, कलापूर्ण एवं पनोरम बनाने में 'नारी' अथवा 'गृह लक्ष्मी' की महिमा महान है और उसकी बहुत अधिक विस्तार के साथ व्याख्या करने की कोई अपेक्षा भी नहीं है।
मनुष्य की एक बड़ी विशेषता, जिसे समाजशास्त्री दुहराते रहते हैं, यह है कि वह एक सामाजिक प्राणी है । अर्थात् वह अकेला रहना नापसन्द करता है और अपने आस-पास, उसके सामाजिक साथी होवें, इसी में सुख समझता है । इसीलिए हम देखते हैं कि शारीरिक अभाव एवं मानसिक ताप-सन्ताप में रहकर भी मनुष्य समाज में ही बना रहना चाहता है । वह केवल दो प्रकार के दण्डों से ही भय मानता है-एक तो यह कि उसे समाज बहिष्कृत कर दिया जाए और दूसरे कि उसे किसी कारागार में डाल दिया जाए, चाहे वहाँ उसे सभी प्रकार की सुख-सुविधाएँ भी क्यों न उपलब्ध होवें। फिर यह 'समाज' क्या है जिसके प्रति मनुष्य इतना अनुरक्त है ? थोड़े शब्दों में समाज, मानवों का एक परिवार है । वह अनेक परिवारों का समूह है । परिवार की सीमाएँ गृह या घर है। जिसकी अधिष्ठात्री या संचालिका
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गृहिणी या नारी है । अनेक परिवारों से मुहल्ला, मुहल्लों से गाँव बनते हैं । गाँव जब बड़ा आकार ग्रहण करते हैं तो 'शहर' कहाते हैं। धरती पर रहने वाले अरबों मानव प्राणी इसी भांति घरों, मुहल्लों, गाँवों, शहरों, राष्ट्रों में रहते हैं—रहना चाहते हैं । पर समाज का लघुरूप या विग्रह घर है। जिस घर में गृहलक्ष्मी का समुचित मान-सम्मान या 'पूजा' होती है उसमें मनुस्मृतिकार मनु का कहना है कि वहाँ सभी देवता रमण करते हैं। विद्या की देवी सरस्वती एवं धन-धान्य की देवी लक्ष्मी दोनों का ही ऐसे घरो में निवास रहता है । इस सारी सुख-समृद्धि की धुरी, गृहिणी, गृहलक्ष्मी या नारी ही है । मनु ने यह भी कह दिया है कि जिस घर में या समाज में नारी की अपूजा या अवमानना होती है, वहाँ सभी प्रकार की क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं। अतः तनिक कल्पना करें कि बिना नारी के इस समस्त जगती का क्या मुल्य रह जाता?
गुजराती के यशस्वी कवि मेघाणी (झवेरचन्द मेघाणी) ने 'शिवाजी नी लोरी' नामक एक बड़ी ही ओजस्विनी कविता रची है। शिशु शिवाजी को, उनकी माता जीजाबाई, पालने में झुलातो-झुलाती, वीर रस से ओतप्रोत कविताएँ मधुर लोरियों में गाकर सुलाती हैं। सूरदास ने यशोदा द्वारा गाई जाने वाली लोरियाँ बड़ी ही मार्मिक शैली में लिखी हैं। उन्हीं लोरियों के कारण श्री कृष्ण सोलह कला वाले अवतार हुए और श्रीकृष्ण के बारे में लोगों ने यहाँ तक कहा है कि 'कृष्णस्तु भगवान स्वयम्' (कृष्ण तो साक्षात् भगवान हैं)। करुणा और मैत्री का सन्देश विश्व-भर में फैलाने वाले महात्मा बुद्ध और महात्मा महावीर, 'भगवान' उपाधि से विभूषित हुए । इन दोनों ही महात्माओं की परम पूज्या माताओं की आदि प्रेरणा द्वारा ही वे आगे चलकर मानव जाति के पथ-प्रदर्शक बने।
सारतः माता ही शिशु की प्रथम गुरु है। इस देश की अति प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा में. नारी के रूप में ही सष्टि की नियामक आद्य शक्तियों एवं ऋद्धि-सिद्धियों की उपासना एवम् वन्दना की गई है। विद्या और वाणी की देवी सरस्वती, जिसके हाथों में वीणा और पूस्तक, अखिल कलाओं एवं अखिल वाङमय के प्रतीक हैं-वैभव एवम् समृद्धि के प्रतीक दो गजाधिपतियों द्वारा अभिषिक्त एवम् रत्नजटित मकट एवं वस्त्राभूषणों द्वारा अलंकृत अपने चारों हाथों से धन और धान्य बरसाती हुई सांसारिक वैभव और ऐश्वर्य की देवी, लक्ष्मी, तथा दशों भुजाओं में अमोघ, दशायुधों को धारण करने वाली महाप्रचण्ड तेजस्विनी, वीरता और शौर्य की देवी दुर्गा । इन तीनों शक्ति-प्रतीकों द्वारा ध्वनित अभिप्राय के अनुसार नारी अथवा जगज्जननी ही सभी आध्यात्मिक एवम् भौतिक सुख-समृद्धि की उद्गम है। इसीलिए उसका सम्मान, भारतीय संस्कृति में सर्वोपरि एवम् सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। मानव जाति के सभ्यता एवम् संस्कृति के उद्गम, विकास एवं अभ्युदय की, सुदीर्घ यात्रा में, नारी का स्थान और महत्त्व, सदा ही शीर्ष एवं निर्णायक सिद्ध हुआ है।
यदि हम विवेचित विषय के आलोक में सहस्रों-सहस्रों वर्षों से चली आने वाली भारत की सभ्यता एवं संस्कृति की कहानी को, बीजरूप में दुहरा कर देखेंगे तो उसमें हमें आदि से अन्त तक नारी की गरिमा अनवरत एवम् अक्षुण्ण रूप से दृष्टिगोचर होगी। जिन्हें वैदिक वाङमय के बारे में थोडी बहत भी जानकारी है, वे भलीभाँति जानते हैं कि वेदों के सूत्रों के सृष्टाओं में अनेक विदूषी नारियाँ भी थीं। उनकी चर्चा अगस्त्य, अत्रि, याज्ञवल्क्य, वशिष्ठ आदि की, विद्यालोक से दीप्त अ गिनियों के रूप में, बहुचर्चित और बहुश्रुत रही है। महर्षि अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा ने ऋग्वेद के प्रथम मण्डल की
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और उसके १८ अनुवाकों की, १७६ सूक्तों की तथा २ मन्त्रों की व्याख्यायें की हैं । अत्रि ऋषि की विदषीण पत्नी अनसूया, और वशिष्ठ-पत्नी अरुन्धती की विद्वत्ता की धाक दूर-दूर तक थी। प्रातः स्मरण में पंचकन्याओं का स्मरण भी महान पातकों को नाश करने वाला माना गया है । यथा :--
अहल्या, द्रौपदी, तारा, कुन्ती, मन्दोदरी तथा। पंचकन्या स्मरेत् नित्यम्, महापातक नाशिनीम् ॥
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MAHIPA
नारियों ने इतिहास में अवसर आने पर राजदण्ड भी संभाला है और असिदण्ड भी। अनतिका इतिहास में गोंडवाने की महारानी दर्गावती तथा गोलकण्डा की मलिका चाँटसीसी कहानियों से मध्यकालीन इतिहास अनुगुंजित है । दिल्ली के राजसिंहासन पर दृढ़ता एवम् योग्यता से राज करने वाली रजिया सुलताना का वृत्तान्त बहुत प्रेरणाप्रद है। इन्दौर की रानी अहिल्याबाई को भारत की प्रजा, आज भी देवी-रूप में मानती है।
ब्रिटिश साम्राज्य को भारत में जड़ें न जमाने दिया जाये इसके लिए बंगाल की वीरांगना 'देवी चौधुरानी' ने जलदस्युओं की जलपोत-सेना संगठित करके, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कितने ही धनधान्य से भरे जहाजों को लूट लिया था और वह सभी बुभुक्षित प्रजाजनों में बाँट दिया था। भारत के स्वाधीनतासंग्राम में नारी की भूमिका इतनी महान एवं प्रेरणादायिनी रही है कि उसकी प्रशस्तियों के रूप में देश भर में लोककथाओं एवम् लोकगीतों को गाँवों-गाँवों और घरों-घरों में कहा-सुना और गाया जाता है। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, अवध की बेगम हजरतमहल, कित्तूर की रानी चिनम्मा ने, सन् १८५७ ई० के महान प्रथम भारतीय महासंग्राम को नेतृत्व प्रदान किया था। हमारी बीसवीं सदी ईस्वी में, सफलता पूर्वक लड़े गये, भारत के द्वितीय विमुक्ति महासंग्राम में, कई हजार महिलाओं ने, ब्रिटिश कारागारों की यातनाएँ सही थीं। सशस्त्र क्रांतिकारी आन्दोलन में भी अनेक वीरांगनाएँ, अंग्रेजी सेनाओं की गोलियों से शहीद हई थीं। वास्तविकता तो यह है कि यदि भारतीय महिलाएँ हमारी आजादी की दूसरी लडाई में नेतृत्व न संभालती तो हम असूर्यअस्ता ब्रिटिश साम्राज्य को भारत भूमि से निष्कासित करने में कदापि सफल न हुए होते।
भारत की स्वाधीनता-प्राप्ति के पश्चात् के विगत चार दशकों के इतिहास का, सबसे गौरवशाली अध्याय है, वह कालखण्ड जिसे 'इन्दिरा-युग' कह सकते हैं। अपने अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के राजनेता पिता पं. जवाहरलाल जी के स्वर्गवास के पश्चात् तथा उन्हीं के विश्वस्त कर्मनिष्ठ उत्तराधिकारी श्री लालबहादर शास्त्री के अचानक स्वर्गवास के पश्चात्, जब देश, पर्याप्त, बड़े और गहरे राजनैतिक संकट में था तभी श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने स्वाधीन भारत की सर्वप्रथम महिलामन्त्री का पद, सन १६६६ में सँभाला । उन्होंने भारतीय नारी की गरिमा को विश्व-मान्य स्तर पर पहुंचा दिया। उनका शासनकाल सन १६६८, ब्रिटिश पासनोत्तर स्वाधीन भारत के इतिहास में सदैव 'स्वर्णकाल' कहलाएगा। जिस समय श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने, इस देश की सर्वोच्च शासिका का भार ग्रहण किया था, तब भारतीय राष्ट्र की राजनैतिक, आर्थिक एवं अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ पर्याप्त शोचनीय थीं। किन्तु अपने सोलह वर्षों के सुशासन के द्वारा उन्होंने भारतीय राष्ट्र को प्रगति एवम् अभ्युदय के पथ पर इतनी तीव्रता से अग्रसर
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________________ FIRROLLARAL साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ / करने में सफलता पाई जिसे देखकर, विश्व भर के राजनीतिविद् चक्कर में पड़ गये / सन् 1971 के वर्ष में भारतीय इतिहास का सबसे गोरवशालो अध्याय लिखा गया जब श्रीमती गाँधी ने अपने अदभुत शौर्य, गहरी नीतिमत्ता एवं अपूर्व धैर्य एवं साहस का परिचय देते हुए, न केवल अपने पड़ौसी आक्रान्ता देश पाकिस्तान को नाकों चने चबवा दिये, वरन् आज के विश्व में सैन्यबल में और आयुध-संग्रह में सर्वाधिक शक्तिशाली माने जाने वाले राष्ट्र अमरीका की, बन्दर घुड़कियों की परवाह न करके, और बंगाल की खाड़ो को ओर जलमार्ग से बढ़ते आने वाले सातवें बेड़े की परवाह न करते हुए, बंगला देश के मुक्ति संग्राम को उसके रोमांचकारी सफल अन्त तक पहुँचाकर ही दम लिया। भारतीय इतिहास के हजारों-हजारों वर्षों में, केवल एक ही ऐसी घटना मिलती है जिससे कि बंगला देश की विमुक्ति एवं पाकिस्तान की इतनी निर्णायक पराजय से तुलना की जा सकती है / और वह घटना है, महावीर श्रीराम द्वारा, लंका-विजय की महा गाथा / इन्दिरा गाँधी ने विश्व भर को यह भी करके दिखा दिया कि जबकि भारत के वीर पुरुषोत्तम राम भारतीय नारी-शिरोमणि देवी सीता को, रावण के कारागृह से मुक्त करा सकते हैं, तथा बिना सुसज्जित राजकीय सेना की सहायता के वनवासी / रावण की वैज्ञानिक आयुधों से युक्त, महाशक्तिशाली सेना को धराशायी कर सकते हैं, तब भारत की ही एक महानतम वीरांगना, न केवल विश्व भर के पुरुष राजनायिकों एवं सेनानायकों को लज्जित करके, रणभूमि में युगान्तरकारी विजय प्राप्त कर सकती है, वरन् अन्तर्राष्ट्रीय उदारता एवं शालीनता के ऊँचे से ऊँचे मानदण्ड भी स्थापित कर सकती है। मामा इन्दिरा गाँधो इस युग की नारी-रत्न थीं। उन्होंने नारी की वात्सल्यमयी करुणा से द्रवित होकर बंगला देश के लाखों, मौत और जिन्दगी के बीच झूलते हुए, स्वतन्त्रता सेनानियों को निष्काम भाव से, ठीक समय पर, सैन्य सहायता एवं आर्थिक मदद पहुँचाई। उन्होंने न केवल बंगला देश के विमुक्तिसंग्राम को सफलता की मन्जिल तक पहुँचाने में सक्रिय सहा यता प्रदान की वरन् करोड़ों शरणार्थी बंगला देश के नर-नारियों को, आतताइयों के हाथों, मृत्यु की दाढ़ों से बचाकर, भूखों मरने से भी, महीनों तक सुरक्षित रखा। उस समय श्रीमती इन्दिरा गाँधी को, लाखों बंगला देशवासियों ने, सहस्र भुजाधारिणी, साक्षात् दुर्गा के रूप में देखा / उन्होंने विश्वभर में शान्ति, सद्भाव एवं निःशस्त्रीकरण के मार्ग पर नेतृत्व प्रदान किया। केवल उन्हीं का उदाहरण विश्व के कल्याण हेतु, नारी की महत्ता स्थापित करने के हेतु, पर्याप्त है। 286 | छठा खण्ड : नारी समाज के विकास में जैन साध्वियों का योगदान www.jainelibE PREMIमसम्म LLIAALteraturAIJAPPL