Book Title: Manav Sanskruti Me Vrato Ka Yogdan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

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Page 7
________________ राजा ने कहा- हाँ, इस अवधि में तो मेरा पूर्ण अधिकार है, मेरा प्रदेश सभी को मान्य होता है । दार्शनिक ने बताया--"तो फिर अपने अधिकार का उपयोग क्यों नहीं करते ? समस्त जंगल को कटवा कर साफ करवा दो और वहाँ पर नया साम्राज्य स्थापित करदो, अपने लिए महल बनवालो, जनता के रहने के लिए भी आवास बनवाकर अभी से उस जंगल को शहर के रूप में आबाद करदो । जबकि तुम्हें पूर्ण अधिकार है और विधान व परम्परा के अनुसार जब तुम्हें अवधि समाप्त होने पर जंगल में छोड़ा जाए, तो हिंस्र पशुओं की गर्जना व प्रातंक जगह नगरजनों का मधुर स्वागत, धन व ऐश्वर्य क्रीड़ा करता मिलेगा ।" राजा को यह बात जँच गई और तत्काल श्रादेश देकर जंगल को साफ करवा दिया । और उस भयावह स्थान को सुन्दर सुन्दर भवन, उद्यान प्रादि से खूब सजा दिया गया, और एक नए नगर का निर्माण कर दिया गया। अब राजा बहुत प्रसन्न रहने लगा, अपने उस नगर को देखता, तो पुलकित हो उठता । पाँच वर्ष की अवधि सम्पूर्ण हुई । जहाँ अन्य सम्राट् अवधि समाप्त होने पर रोते-बिलखते थे, वहाँ यह हँस रहा था। विधानानुसार पाँच वर्ष की अवधि समाप्त होने पर राजा अपने ही द्वारा निर्मित उस नये साम्राज्य में, जो कभी भयंकर जंगल था, जाने लगा तो नगर के हजारों नर-नारी उसके पीछे हो लिए। उस नवनिर्मित नगर के आकर्षण व सौन्दर्य के कारण लोग वहाँ जाकर बसने लगे और राजा प्रानन्द से रहने लगा । यही बात जीवन की है। इस संसार से परे श्रागे नरक की भीषण यातनाएँ, ज्वालाएँ हमें अभी से बेचैन कर रही हैं और हम सोचते हैं कि आगे नरक में यह कष्ट देखना पड़ेगा । किन्तु यह नहीं सोचते कि उस नरक को बदलकर स्वर्ग क्यों न बना दिया जाए ? यह सच है कि यहाँ से एक कोड़ी भी हमारे साथ नहीं जाएगी। किन्तु इस जीवन में रहते-रहते तो हम वहाँ का साम्राज्य बना सकते हैं। इस जीवन के तो हम सम्राट् हैं, शाहंशाह हैं । यह ठीक है कि इस जीवन के बाद मौत की भयंकर घाटी है, नरक आदि की भीषण यंत्रणाएँ हैं, जो जीव को उदरस्थ करने की प्रतीक्षा में रहती हैं किंतु यदि मनुष्य अपने इस जीवन की अवधि में दान दे सके, तपस्या कर सके, त्याग, ब्रह्मचर्य, सत्य आदि का पालन कर सके, साधना का जीवन बिता सके, और इस प्रकार पहले से ही आगे की तैयारियाँ करके प्रस्तुत रहे, तो इस यात्रा में, इस जीवन में उसे हाय हाय करने की आवश्यकता नहीं रहती । वर्तमान के साथ भविष्य को भी उज्ज्वल बना सकता है, उसके दोनों जीवन श्रानन्दमय हो सकते हैं । व्रतों की फलश्रुति : इस प्रकार जितने भी पर्व-त्योहार आते हैं, उनका यही संदेश है कि तुम इस जीवन में आनन्दित रहो और अगले जीवन में भी प्रानन्दित रहने की तैयारी करो। जैसे यहां पर त्योहारों की खुशियों में भुजाएँ उछालते हो, वैसे अगले जीवन में भी उछालते रहो । हमारे व्रतों का मानव के लिए यही आदर्श बोध हैं कि आज तुम्हें जीवन का वह साम्राज्य प्राप्त है, जिस साम्राज्य के बल पर तुम दूसरे हजारों-हजार साम्राज्य खड़े कर सकते हो । तुम अपने भाग्य के स्वयं विधाता हो, अपने सम्राट् स्वयं हो। तुम्हें अपनी शक्ति का भान होना चाहिए। मौत के भय से काँपते मत रहो, बल्कि ऐसी साधना करो, ऐसा प्रयत्न करो कि वे भय दूर हो जाएँ और परलोक का वह भयंकर जंगल तुम्हारे साम्राज्य का सुन्दर देश बन जाए । पर्व मनाने की यही परम्परा है, पर्युषण और उसके व्रतों को यही फलश्रुति है कि जीवन के प्रति निष्ठावान बनकर जीवन को निर्मल बनाओ, इस जीवन में अगले जीवन का प्रबन्ध करो। जब तुम्हें यहाँ की अवधि समाप्त होने पर आगे की ओर प्रस्थान करना पड़े, तो रोते-बिलखते नहीं, बल्कि हँसते हुए करो। साधक इस जीवन को भी हँसते हुए जीए और अगले जीवन को चले, तो भी हँसते हुए चले, पर्युषण का यह पावन पर्व हम सबको अपना यही सन्देश सुना रहा है। मानव-संस्कृति में व्रतों का योगदान Jain Education International For Private & Personal Use Only ३३६ www.jainelibrary.org.

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