Book Title: Man Shakti Swarup aur Sadhna Ek Vishleshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 12
________________ है और चित्त शुभ-अशुभ दोनों से ऊपर उठ जाता है। यह उसकी शुद्ध ज्ञाता द्रष्टा अवस्था है, इसे परमानन्द या समाधि की अवस्था भी कहा जा सकता है। जैन परम्परा के अनुरूप बौद्ध और हिन्दू परम्पराओं में भी मनोभूमियों का उल्लेख उपलब्ध है। बौद्ध दर्शन में जैन दर्शन के समान ही चित्त की १. कामावचर, २. रूपावचर ३ अरूपावचर और ४. लोकोत्तर— इन चार अवस्थाओं का उल्लेख है जो कि क्रमशः विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट और सुलीन के समतुल्य है। योग दर्शन में मन की निम्न पाँच अवस्थाओं का उल्लेख है- १. क्षिप्त, २. मूढ़, ३. विक्षिप्त, ४. एकाग्र और ५. निरुद्ध इसमें भी यदि हम क्षिप्त और मूढ़ चित्त को एक ही वर्ग में रखें, तो तुलनात्मक दृष्टि से यहाँ भी जैन दर्शन से समानता ही परिलक्षित होती है। जिसे निम्न तालिका से स्पष्ट किया जा सकता है— जैन दर्शन बौद्ध दर्शन विक्षिप्त सन्दर्भ १. २. यातायात श्लिष्ट एकाग्र सुलीन निरुद्ध जैन दर्शन का विक्षिप्त मन, बौद्ध दर्शन का कामावचर चित्त और योग दर्शन के क्षिप्त एवं मूढ़ चित्रा समानार्थक हैं, क्योंकि सभी ३. लखनऊ, १ ४. वही, वर्ग २ | ५. वही, वर्ग ४३ । ६. वही, वर्ग ३७१ ७. ८. ९. मन-शक्ति स्वरूप और साधना एक विश्लेषण ३८१ के अनुसार इस अवस्था में चित्त में वासनाओं की बहुलता तथा विकलता रहती है। इसी प्रकार यातायात मन, रूपावचर चित और विक्षिप्त चित्त भी समानार्थक ही हैं, क्योंकि सभी ने इसे चित्त की अल्पकालिक, प्रयाससाध्य स्थिरता की अवस्था माना है। यहाँ वासनाओं का वेग तथा चित्त विक्षोभ तो बना रहता है, किन्तु उसमें कुछ मन्दता अवश्य आ जाती है। तीसरे स्तर पर जैन दर्शन का श्लिष्ट मन, बौद्ध दर्शन का अरूपावचर चित्त और योग-दर्शन का एकाग्रचित्त भी समकक्ष है, क्योंकि इसे सभी ने मन की स्थिरता और अप्रमत्तता की अवस्था माना है चित्त की अन्तिम अवस्था, जिसे जैन दर्शन में सुलीन मन, बौद्ध दर्शन में लोकोत्तर चित्त और योग दर्शन में निरुद्ध चित्त कहा गया है, स्वरूप की दृष्टि से समान ही है, क्योंकि इसमें 'सभी ने वासना-संस्कार एवं संकल्प-विकल्प का पूर्ण अभाव माना है। कामावचर रूपावचर अरूपावचर लोकोत्तर उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० साध्वी चन्दना, प्रका०, वीरायतन प्रकाशन, आगरा १९७२, २९/५६ । योगशास्त्र (हेमचन्द्र), संपा०, मुनि समदर्शी, प्रका० श्री ऋषभचन्द्र जौहरी, किशन लाल जैन, दिल्ली १९६३, ४/३८। धम्मपद, अनु०, राहुल सांकृत्यायन, प्रका० बुद्ध विहार चितं वर्तते चित्तं चित्तमेव विमुच्यते । " चित्तहि जायते नान्यच्चित्तमेव निरुध्यते ।। १०. वही, ६ / २७ १९. वही, ३/४० योग दर्शन क्षिप्त एवं मूढ़ विक्षिप्त Jain Education International — • लंकावतारसूत्र, संपा०, श्री परशुराम शर्मा, मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा १९६३, १४५ । ब्रह्मबिन्दु उपनिषद्, अष्टोत्तर शतोपनिषद, संपा०, वासुदेव शर्मा, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९३२. २। गीता, संपा०, स्वामी प्रभुपाद, प्रका०, भक्तिवेदान्त बुक ट्रस्ट, बम्बई १९९३, ३/४० । " १२ . वही, ३ / ४० १३. देखिये - दर्शन और चिन्तन, पं० सुखलालजी, प्रका० गुजरात, विद्या सभा, अहमदाबाद १९५७, भाग १, पृ० १४० तथा भाग वस्तुतः सभी साधना पद्धतियों का चरम लक्ष्य मन की उस वासनाशून्य, निर्विकार, निर्विचार एवं अप्रमत्तदशा को प्राप्त करना है, जिसे सभी ने समाधि के सामान्य नाम से अभिहितं किया है। साधना है— वासना से विवेक की ओर, प्रमत्तता से अप्रमत्ता की ओर तथा चित्त-क्षोभ से चित्त-शान्ति की ओर प्रगति । मन का यह स्वरूप विश्लेषण हमें इस दिशा में निर्देशित कर सकता है किन्तु प्रयास तो स्वयं ही करने होंगे। साधन केवल स्व-प्रयासों से ही फलवती होती है। २, पृ० ३११ । १४. मनश्चैव जडं मन्य- योगवासिष्ठ, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई १९१८, निर्वाण प्रकरण, सर्ग ७८/२१। १५ भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । १६. १७. अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा । - गीता, संपा०, स्वामी प्रभुपाद, प्रका०, भक्तिवेदान्त बुक ट्रस्ट, बम्बई १९९३, ७/४ मनः द्विविध: - द्रव्यमनः भावमनः च । राधाकृष्णन - भारतीय दर्शन, राजपाल एण्ड सन्स, दिल्ली १९६६, भाग १ । १८. The Jaina's have given a modified parallelism with reference to psychic activity as determined by the Karmic matter -- They presented a sort of psycho-physical parallelism concerning individual mind & bodies yet they were not unaware of interaction between the mental and bodily activity -- Jiana's do not speak merely interms of pre-established harmony their theory transcends parallelism and postulates a more intimate connection between body and mind their motion of the structure of the mind and functional aspects of the mind shows that they were aware of the significance of interaction. Jaina theory was an attempt at the integration of metaphysical dichotomy of Jiva and Ajiva and the establishment of the interaction of individual mind and body. -- Some Problems of Jaina Psychology, University of Karntaka, Dharwar, 1961, Page 29. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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