Book Title: Man-Shakti Swaroop aur Sadhna Ek Vishleshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 16
________________ १४ मनश्चैव जड़ मन्य-- योगवासिष्ठ निर्वाण प्रकरण सर्ग ७८।२१ १५ भूमिरापो अनलो वायुः खं मनोबुद्धिरेव च । अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ गीता १६ मनः द्विविधः द्रव्यमनः भावमनः च । १७ राधाकृष्णन - भारतीय दर्शन भाग १ - जैनदर्शन मन: शक्ति, स्वरूप और साधना –एक विश्लेषण 18 The Jaina's have given a modified parallelism with reference to psychic activity as determined by the Karmic matter-They presented a sort of psycho-physical paralleiism concerning individual minds & bodies yet they were not unaware of interaction between the mental and bodily activity-Jaina's do not speak merely interms of pre-established harmony their theory transcends parallelism and postulates a more intimate connection between body and mind their motion of the structure of the mind and functional aspects of the mind shows that they were aware of the significance of interaction. Jain theory was an attempt at the integration of metaphysical dichotomy of Jiva and Ajiva and the establishment of the interaction of individual mind and body. १६ विशद तुलनात्मक विवेचना के लिये देखिये - दर्शन और चिन्तन, भाग १, पृ० १३४-१३५ २० विशद विवेचना के लिए देखिए - विशुद्धिमग्गो, भाग २, पृ० १०३ १२८ ( हिन्दी अनुवाद) २१ गीता १५६ २२ सद्द-रूवे य गन्धे य, रसे फासे तहेव य । २३ जागंतो पस्तो ईहापुण्यं ण होई केवलियो । पंचविहे कामगुणे, निच्चसो परिवज्जए ॥ - उत्तराध्ययन १६।१० केवलिणाणी तम्हा तेण दुसोऽबन्धगो मणिदो || परिणाम पुग्ववयणं जीवस्स य बंधकारणं होई । परिणामरहिय वयणं तम्हा णाणीस्स णहि बंधो ॥ ईहापुब्वं वयणं जीवरस य बंधकारणं होई । ईहारहियं वयणं तम्हा णाणीस्स ण हि बन्धो ॥ ठाणणिसेज्जविहारा ईहापुध्वं ण होई केवलिणो । तम्हा ण होई बंचों सा मोहगीयस्स | —Some Problems of Jain Psychology, Page 29. नियमसार १०१, १०२, १७३, १७४ टिप्पणी- दहा मित्मक संकल्प की अपेक्षा-विमर्शरहित 'वासना' के अधिक निकट है। २४ गणधरवाद--- वायुभूति से चर्चा २४ पानिपतृगत्स्वयंभू स्तस्मात्परापश्यति नान्तरात्मन्—०२०११ २६ स सुहसाया दुक्खपडिकूला - आचारांग २७ इन्द्रियमनुतापान्प्रवृत्ती अभिधान राजेन्द्र खण्ड २, पृ० ५७२ २८ लामस्यार्थस्याभिलाषातिरेके वड़ी, पृ० ५७५ " Jain Education International २१ रागरस समगुनमा बोससहेड अमनमा उत्तरा० २२ २३ तुलना कीजिये : राग की उत्पत्ति के दो हेतु हैं - १. शुभ (अनुकूल ) करके देखना २. अनुचित विचार । द्वेष की उत्पत्ति के दो हेतु है—१. प्रतिकूल करके देखना तथा २ अनुचित विचार । अंगुत्तर निकाय दूसरा निपात ११२६-७ ३० तसे जाति पाई निमज सुहेसिणो दुक्खविणोयणट्ठा तप्पच्चयं कोहं च माणं च तव मायं लोहं दुर्गच्छं अरई रई च । हा भयं सोग पुमित्यवे विवि य भावे ॥ कामगुणेसु सत्तो । आवज्जई एयमणेगरूवे एवंविहे अन् य एयप्पमवे विसेसे कारुण्णदीणे हिरिमं वइस्से | उत्तराध्ययन ३२ १०५, १०२, १०३ मोहमहण्णवम्मि । उज्जमए य रागी ॥ ४५१ 1 For Private & Personal Use Only 0. O www.jainelibrary.org

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