Book Title: Malav Itihas Ek Vihangavalokan Author(s): Jyoti Prasad Jain Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf View full book textPage 4
________________ 210 मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ में गुप्तों की एक शाखा मालवा में शासन करती रही जिसमें हूण नरेश तोरमाण को प्रबोधने वाले आचार्य हरिगुप्त और राजर्षि देवगुप्त जैसे जैन सन्त हुए। इसी बीच मन्दसौर का वीर यशोधर्मन भी कुछ काल के लिए अप्रतिम प्रकाश पुंज की भांति चमक कर अस्त हआ। सातवीं शती में मालवा कन्नौज के हर्षवर्धन के साम्रा का अंग हुआ, जिसके उपरान्त भिन्नामाल के गुर्जर प्रतिहार नरेशों का यहाँ अधिकार हुआ। ऐसा लगता है कि ८वीं शती ई० के मध्य के लगभग धारानगरी को राजधानी बनाकर मालवा में परमारों ने अपना राज्य स्थापित किया। कहा जाता है कि उपेन्द्र नामक वीर राजपूत इस वंश का संस्थापक था। आचार्य जिनसेन पुन्नाट ने अपनी हरिवंश पुराण की रचना 783 ई० धारा से नातिदूर वर्धमानपुर (बदनावर) में की थी। और उस समय के 'अवन्ति-भूभृति' का उन्होंने उल्लेख किया है, जो उपेन्द्र या उसका उत्तराधिकारी हो सकता है। प्रारम्भ में परमार राजा गुर्जर प्रतिहारों के सामन्तों के रूप में बढ़े लगते हैं। दसवीं-ग्यारहवीं शती में सिन्धुल वाम्पतिमुंज, भोज, जयसिहदेव जैसे प्रायः स्वतन्त्र, प्रतापी विद्यारसिक एवं कवि हृदय नरेश रत्न इस वंश में हुए, जिनके समय में महसेन, धनिक, धनपाल, माणिक्यनंदी, नयनंदि, अमितगतिसूरि, महापण्डित प्रभाचन्द्र, श्रीचन्द्र, प्रभृति अनेक दिग्गज जैन साहित्यकारों ने भारती के भण्डार को भरा / भोज का शारदासदन तो दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो गया। साहित्य एवं कला साधना की यह परम्परा परमार नरेशों के प्रश्रय में १३वीं शती पर्यन्त चलती रही। आचार्यकल्प पं० आशाधर एवं उनका साहित्यमण्डल उक्त शती के पूर्वार्ध में विद्यमान था। तेरहवीं शती के अन्त के लगभग दिल्ली के सुल्तानों का मालवा पर अधिकार हुआ और चौदहवीं के अन्त के लगभग मालवा के स्वतन्त्र सुल्तानों की सत्ता मण्डपदुर्ग (माण्डू) में स्थापित हो गई, जिसके अंतिम नरेश बाज बहाहुर को समाप्त करके 1564 ई० में अकबर महान् ने मालवा को मुगल साम्राज्य का एक सूबा बना दिया। उपरोक्त मालवा के सुल्तानों के समय में भी अनेक जैनधर्मानुयायी राज्यकार्य में नियुक्त रहे, मण्डन मन्त्री जैसे महान साहित्यकार हुए, जैन भट्टारकों की गद्दियाँ भी मालवा में स्थापित हुईं और मन्दिर-मूर्तियां भी अनेक प्रतिष्ठित हुई / मुगल शासनकाल में स्थिति में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। मुगलों के पराभव के उपरान्त मालवा पर मराठों का अधिकार हुआ और उत्तर मराठा युग में इन्दौर, ग्वालियर आदि कई मराठा राज्य स्थापित हुए, कुछ राजपूत राज्य भी थे, जो सब अंग्रेजी शासनकाल में सीमित अधिकारों के साथ बने रहे। 1947 ई० में स्वतन्त्रता प्राप्ति के फलस्वरूप मालवा सर्वतन्त्र स्वतन्त्र भारत के मध्य राज्य का अंग बना। इसमें सन्देह नहीं है कि मालवभूमि प्रारम्भ से ही वर्तमान पर्यन्त, भारतीय संस्कृति का ही नहीं जैनधर्म एवं जैन संस्कृति का भी एक उत्तम गढ़ रहता आया है। जैन आचार्यों, सन्तों, कलाकारों, श्रीमन्तों एवं जनसाधारण ने इस भूमि की संस्कृति एवं समृद्धि के संरक्षण और अभिवृद्धि में प्रभूत योग दिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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