Book Title: Malav Itihas Ek Vihangavalokan Author(s): Jyoti Prasad Jain Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf View full book textPage 3
________________ ____ मालव इतिहास : एक विहंगावलोकन २०६ पुत्र था पौत्र संभवतया महेन्द्रादित्य गर्दभिल्ल था, जिसका पुत्र उज्जयिनी का सुप्रसिद्ध वीर विक्रमादित्य (ई० पू० ५७) था। __मौर्यवंश की स्थापना के कुछ वर्ष पूर्व ही, ई० पू० ३२६ में यूनानी सम्राट सिकन्दर महान ने भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों पर आक्रमण किया था। उस काल में उस प्रदेश में कई छोटे-छोटे राजतन्त्र और दर्जनों गणतन्त्र स्थापित थे । इन्हीं गणराज्यों में एक "मल्लोइ" (मालव) गण था। ये मालव जन बड़े स्वाभिमानी, स्वतन्त्रचेता और युद्धजीवी थे। यूनानियों की अधीनता में रहना इन्हें नहीं रुचा, अतएव सामूहिक रूप से स्वदेश का परित्याग करके वे वर्तमान राजस्थान में पलायन कर गये। वहाँ टोंक जिले में उनियारा के निकट अब भी प्राचीन मालव नगर के अवशेष हैं। कालान्तर में वहाँ से भी निर्गमन करके वे अन्ततः उज्जयिनी क्षेत्र में बस गये। यह घटना सम्प्रति मौर्य के समय घटी प्रतीत होती है। खारवेल की विजय के समय अवन्ति में इन्हीं युद्धवीर मालवजनों की प्रधानता हो गई लगती है, अतएव उसका जो राजकुमार राज्य प्रतिनिधि के रूप में रहा वह मालवगण के प्रमुख के रूप में होगा। गर्दभिल्ल के दुराचारों से त्रस्त होकर आचार्य कालक सूरि ने शककुल के शक-शाहियों की सहायता से उस अत्याचारी शासक का उच्छेद किया। किन्तु अब स्वयं शक लोग यहाँ जम गये और विजय के उपलक्ष्य में एक संवत् भी ई० पू० ६६ में चला दिया। स्वतन्त्रता प्रेमी मालवगण यह सहन न कर सके और गर्दभिल्ल-पुत्र वीर विक्रमादित्य के नेतृत्व में संगठित होकर उन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम छेड़ दिया। परिणामस्वरूप, ई० पू० ५७ में वे उज्जयिनी से शकों का पूर्णतया उच्छेद करने में सफल हुए, विक्रमादित्य को गणाधीश नियुक्त किया, सम्वत् प्रचलित किया जो प्रारम्भ में कृत, (कार्तिकादि होने के कारण) तथा मालव सम्वत् कहलाया और कालान्तर में विक्रम सम्वत् के नाम से लोक प्रसिद्ध हुआ तथा सिक्के भी चलाये जिन पर "मालव-गणानां जय" जैसे शब्द अंकित हैं। तभी से यह प्रदेश मालवभूमि या मालवा नाम से प्रसिद्ध होता गया। विक्रमादित्य के आदर्श सुराज्य में उसकी महती अभिवृद्धि हुई। विक्रमादित्य की एक आदर्श जैन नरेश के रूप में प्रसिद्धि हुई है। कुछ काल तक मालवा पर विक्रमादित्य के वंशजों का राज्य रहा, जिसके उपरान्त सौराष्ट्र के शक क्षहरात नहपान एवं उसके उत्तराधिकारी चष्टनवंशी शक क्षत्रपों और प्रतिष्ठान के शातवाहन नरेशों के मध्य उज्जयिनी पर अधिकार करने की होड़ चली। भद्रचष्टन ने उस पर अधिकार करके प्रचलित शक संवत् (७८ ई०) चलाया तो कुछ समय पश्चात् शातवाहनों ने अधिकार करके उक्त संवत् के साथ "शालिवाहन" विशेषण जोड़ दिया। ईसा की तीसरी-चौथी शती में इस प्रदेश पर वाकाटकों का शासन रहा । तदनन्तर गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त ने उज्जयिनी को अपने साम्राज्य की उपराजधानी बनाया। उसकी सभा में कालिदास, सिद्धसेन, क्षपणक प्रभृति नवरत्नों इस नगरी को ज्ञान-विज्ञान एवं संस्कृति का उत्तम केन्द्र बना दिया। वराहमिहिर जैसे ज्योतिषाचार्य भी यहीं हुए। गुप्त साम्राज्य के छिन्न-भिन्न होने पर भी छठी शती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4