Book Title: Mahavrato ka Yuganukul Parivartan Author(s): Kanhaiyalal Maharaj Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 3
________________ ) (3) सजिल्द मुद्रित पुस्तकें रखना एवं उनकी व्याख्याप्रज्ञप्ति में प्रतिदिन उभय काल प्रतिलेखना न करना, परिस्थितिवश मूलगुण में, उत्तरगुण में दोष (4) कोई आवे नहीं और कोई देखे नहीं ऐसी लगाने वाले पुलाक बकुश और प्रतिसेवना कुशील (SL स्थण्डिल भूमि के बिना मल-मूत्रादि का परित्याग को निर्ग्रन्थ कहा गया है। करना, उसके निर्ग्रन्थ जीवन की स्थिति यावज्जीवन की कही गई है। उनमें तीन शुभ लेश्यायें कही हैं। (5) बिना किसी अपवाद कारण के दूध आदि विकृतियों का तथा विकृतियुक्त आहारों का सेवन इसी प्रकार संघ हित आदि कारणों से न्यूनाकरना इत्यादि संयम को णिशित - संयम को शिथिल करने वाली प्रव धिक दोष लगाने वाले एवं प्रायश्चित्त ग्रहण करने त्तियों का पूर्ण निग्रह करने वाले ही सर्वथा सर्व- वाले इस युग के श्रमण-श्रमणियाँ भी आराधक हैं / विरत माने जा सकते हैं। -व्याख्या० श०२५, उ / o (श्रमण संस्कृति : शेषांश पृष्ठ 283 का) विषय रहे हैं / अपने व्यापक एवं कल्याणकारी दृष्टि- की शरण में न जाकर स्वयं अपने पुरुषार्थ के कोण के द्वारा श्रमण संस्कृति ने प्राणिमात्र को द्वारा नर से नारायण बन सकता है, उसकी आत्मा आत्म-कल्याणपूर्वक श्रेयोमार्ग पर अग्रसर होने में स्वयं अपने विकास एवं चरमोत्कर्ष को प्राप्त करने के लिए अपूर्व संदेश दिया है / यही वह मार्ग है की अपूर्व क्षमता है / आत्मा की दृष्टि से कोई भी जिसका अनुसरण कर प्रत्येक जीवात्मा लोकोत्तर, प्राणी किसी अन्य प्राणी की अपेक्षा न तो छोटा है। चरम, यथार्थ, और अक्षय सुख की अनुभूति और न बड़ा किन्तु वह अपने राग-द्वष आदि आदि / कर सकता है। वैकारिक भावों के कारण विभिन्न योनियों में जन्म इस रूप से मानवता के लिए सबसे बड़ी देन लेकर छोटे-बड़े शरीर को प्राप्त करता है तथा श्रमण संस्कृति-जैन संस्कृति है जिसे हम मानव अनेकानेक दुःखों को भोगता है, जब इसके रागसंस्कृति भी निःसंकोच भाव से कह सकते हैं, क्यों- द्वेष आदि विकारभाव नष्ट हो जाते हैं उसकी कि इस संस्कृति का मानवता से सीधा सम्बन्ध है. आत्मा निर्मल होकर दिव्यज्ञान के प्रकाश से। समस्त मानवीय गुणों के विकास के लिए श्रमण आलोकित होकर अपने शुद्ध चैतन्यमय स्वरूप को संस्कृति द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त प्राणिमात्र के प्राप्त कर इस प्राप्त कर इस संसार से सदा के लिए मुक्त हो प्रति समता का अद्भुत आदर्श प्रस्तुत करते हैं। जाता है। परोपदेश की अपेक्षा स्वयं आचरण के लिए इसमें इस प्रकार यह मानव संस्कृति अपने निर्मल विशेष जोर दिया गया है, इसके अनुसार प्रत्येक प्रवाह से प्राणिमात्र को कल्याण का मार्ग बतलाते चेतनाधारी जीव को अपनी चेतनता के विकास का हुए अजस्ररूप से भारत की भूमि को पावन करते पूर्ण अधिकार है / कोई भी प्राणी किसी एक ईश्वर हुए प्रवाहित हो रही है। -भारतीय चिकित्सा केन्द्रीय परिषद् १ई/६ स्वामी रामतीर्थ नगर नई दिल्ली-११००५५ 286 चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम o साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Sucation International 7 GPrivate & Personal use only www.jairietierary.orgPage Navigation
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