Book Title: Mahavrato ka Yuganukul Parivartan
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि तीर्थंकर श्री आदिनाथ के युग में ऋजु और जड़ अधिक थे और अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्धमान महावीर के इस युग में जड़ जन अधिक हैं | वक्र और पाँच महाव्रतों का विधान व्याख्या प्रज्ञप्ति के विधानानुसार इन दोनों युगों में श्रमणों के लिए पाँच महाव्रतों की परिपालना अनिवार्य मानी गई है। पाँच महाव्रत प्रथम - अहिंसा महाव्रत द्वितीय - सत्य महाव्रत तृतीय - अचौर्य महाव्रत चतुर्थ - ब्रह्मचर्य महाव्रत पंचम -- अपरिग्रह महाव्रत । आदिनाथ के युग में सरलता और जड़ता के कारण और श्रमण महावीर के तीर्थ में वक्रता और जड़ता के कारण पांच महाव्रत पृथक्-पृथक् कहे गए हैं । जिस युग में सरल और जड़ मानव अधिक होते हैं या जिस युग में वक्र और जड़ मानव अधिक होते हैं उस युग में पाँच महाव्रतों का प्ररूपण किया गया है । यद्यपि इन दोनों युगों में ऋजु और प्राज्ञ जन भी विद्यमान रहे हैं फिर भी महाव्रतों की आराधना का विधान बहुसंख्यक जनों की अपेक्षा से ही किया जाता है । अर्हन्त आदिनाथ के शासनकाल में गणधरादि अनेक स्थविर श्रमण ऋजु और प्राज्ञ भी रहे थे किन्तु श्रमण प्रव्रज्या स्वीकार करने वाले श्रमणों में ऋणु और जड़ जन ही अधिक थे । इसी प्रकार अर्हन्त वर्धमान महावीर के धर्मशासनकाल में अनेक गणधरादि स्थविर ऋजु और प्राज्ञ रहे हैं किन्तु श्रमण संघ में प्रव्रजित होने वालों की अधिक संख्या वक्र और जड़ों की ही थी और है । निष्कर्ष यह है कि संघ में अधिक संख्या ऋजु जड़ों की होती है 'या वक्र जड़ों की होती है तो उसी के अनुरूप महाव्रतों की धारणा एवं परिपालना आदि के विधान होते हैं । अन्तर केवल यह है कि ऋजु जड़ श्रमणादि जड़ होते हुए भी ऋजुता की विशिष्टता से वे संयम साधना में सफलता प्राप्त करके शिव पथ के पथिक होकर सिद्ध पद प्राप्त कर लेते थे । किन्तु इस आरक के वक्र जड़ श्रमण वक्रता एवं जड़ता की अशिष्टता के कारण २८४ F4CCCCCCCCCCCCCCC ก ค - अ. प्र. मुनि कन्हैयालाल 'कमल' साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ महाव्रतों का युगानुकूल परिवर्तन DODOFFCFCFCFF fi fi ก fi चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम www.jainelibrary.grg Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( जान संयम साधना में सफल होते हैं और न वे शिव तीन यामों (महावतों) का विधान पथ के पथिक बनकर मुक्त होते हैं क्योंकि संयम आचारांग में महाश्रमण महावीर प्ररूपित तीन साधना की सफलता में सबसे बड़ी बाधा वक्रता एवं याम का विधान भी है। किन्तु किस काल में तीन जड़ता की ही है। यामों का परिपालन प्रचलित रहा यह स्पष्ट ज्ञात चार यामों (महावतों) का विधान नहीं होता। अर्हन्त अजितनाथ से लेकर अर्हन्त पार्श्वनाथ तीन याम तक के सभी संघों में अधिक जनसंख्या ऋज प्राज्ञ प्रथम याम-अहिंसा महाव्रत भजनों की ही रही थी। वे प्राज्ञ (विशेषज्ञ) होते हुए द्वितीय याम-सत्य महाव्रत भी ऋजु सरल (स्वभावी होते) थे। विशेषज्ञ होकर तृतीय याम-अपरिग्रह महाव्रत । सरल होना अति कठिन है। यह उस काल की शिष्टता ही थी। अस्तेय महाव्रत और ब्रह्मचर्य महाव्रत ये दोनों अपरिग्रह महाव्रत के अन्तर्गत समाविष्ट कर लिए उस मध्यकाल में ऋजु-जड़ जन और वक्र-जड़ गए थे। जन भी होते थे किन्तु अत्यल्प । इस युग के अनुरूप महाव्रतों का विधान ऋजु-प्राज्ञ श्रमण गणों की संयम-साधना अधिक से अधिक सफल होती थी और वे उसी भव में या यदि इस युग के श्रमण जहावाई तहाकारी' छ भवों की सतत संयम-साधना मानो याने जैसा कथन वैसा आचरण करना चाहें तो जाते थे। अतएव ऋजु-प्राज्ञ श्रमणों के लिए चार उनके लिए सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य इन तीनों का यामो (महाव्रतों) की परिपालना का विधान था। पालन हा पचात हा उस युग में "याम" शब्द महाव्रतों के लिए प्रचलित इस युग के कुछ ऋजु प्राज्ञ श्रमण पाँचों महाथा । व्रतों का परिपूर्ण पालन अवश्य करते हैं । प्रचलित चार याम परम्परा के अनुसार ऐसा मान लेना अनुचित भी नहीं है किन्तु नीचे लिखी प्रवृत्तियों का जब तक प्रथम याम-अहिंसा महाव्रत पूर्ण त्याग न हो तब तक आगमानुसार पाँचों महाद्वितीय याम-सत्य महाव्रत व्रतों का या सम्पूर्ण जिनाज्ञा का पालन कैसे सम्भव तृतीय याम-अस्तेय महाव्रत हो सकता है। चतुर्थ याम-अपरिग्रह महाव्रत (१) प्रतिबद्ध उपाश्रयों में ठहरना अर्थात् उस मध्य युग में ब्रह्मचर्य महाव्रत, अपरिग्रह - गृहस्थों के घरों की छत से संलग्न उपाश्रयों में महाव्रत के अन्तर्गत समाविष्ट मान लिया गया था ९ ठहरना, क्योंकि वे प्राज्ञ होने के कारण संक्षिप्त कथन से (२) लेखों का, निबन्धों का ग्रन्थों का मुद्रण हेतु भी आशय को समझ लेने वाले थे। संशोधन-सम्पादन करना, । १. व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक २० उद्देशक ८ २. आचारांग श्रुतस्कन्ध १, अध्ययन ८, उद्देशक १ चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम 0640 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ@Gy २८५ ForYrivate & Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) (3) सजिल्द मुद्रित पुस्तकें रखना एवं उनकी व्याख्याप्रज्ञप्ति में प्रतिदिन उभय काल प्रतिलेखना न करना, परिस्थितिवश मूलगुण में, उत्तरगुण में दोष (4) कोई आवे नहीं और कोई देखे नहीं ऐसी लगाने वाले पुलाक बकुश और प्रतिसेवना कुशील (SL स्थण्डिल भूमि के बिना मल-मूत्रादि का परित्याग को निर्ग्रन्थ कहा गया है। करना, उसके निर्ग्रन्थ जीवन की स्थिति यावज्जीवन की कही गई है। उनमें तीन शुभ लेश्यायें कही हैं। (5) बिना किसी अपवाद कारण के दूध आदि विकृतियों का तथा विकृतियुक्त आहारों का सेवन इसी प्रकार संघ हित आदि कारणों से न्यूनाकरना इत्यादि संयम को णिशित - संयम को शिथिल करने वाली प्रव धिक दोष लगाने वाले एवं प्रायश्चित्त ग्रहण करने त्तियों का पूर्ण निग्रह करने वाले ही सर्वथा सर्व- वाले इस युग के श्रमण-श्रमणियाँ भी आराधक हैं / विरत माने जा सकते हैं। -व्याख्या० श०२५, उ / o (श्रमण संस्कृति : शेषांश पृष्ठ 283 का) विषय रहे हैं / अपने व्यापक एवं कल्याणकारी दृष्टि- की शरण में न जाकर स्वयं अपने पुरुषार्थ के कोण के द्वारा श्रमण संस्कृति ने प्राणिमात्र को द्वारा नर से नारायण बन सकता है, उसकी आत्मा आत्म-कल्याणपूर्वक श्रेयोमार्ग पर अग्रसर होने में स्वयं अपने विकास एवं चरमोत्कर्ष को प्राप्त करने के लिए अपूर्व संदेश दिया है / यही वह मार्ग है की अपूर्व क्षमता है / आत्मा की दृष्टि से कोई भी जिसका अनुसरण कर प्रत्येक जीवात्मा लोकोत्तर, प्राणी किसी अन्य प्राणी की अपेक्षा न तो छोटा है। चरम, यथार्थ, और अक्षय सुख की अनुभूति और न बड़ा किन्तु वह अपने राग-द्वष आदि आदि / कर सकता है। वैकारिक भावों के कारण विभिन्न योनियों में जन्म इस रूप से मानवता के लिए सबसे बड़ी देन लेकर छोटे-बड़े शरीर को प्राप्त करता है तथा श्रमण संस्कृति-जैन संस्कृति है जिसे हम मानव अनेकानेक दुःखों को भोगता है, जब इसके रागसंस्कृति भी निःसंकोच भाव से कह सकते हैं, क्यों- द्वेष आदि विकारभाव नष्ट हो जाते हैं उसकी कि इस संस्कृति का मानवता से सीधा सम्बन्ध है. आत्मा निर्मल होकर दिव्यज्ञान के प्रकाश से। समस्त मानवीय गुणों के विकास के लिए श्रमण आलोकित होकर अपने शुद्ध चैतन्यमय स्वरूप को संस्कृति द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त प्राणिमात्र के प्राप्त कर इस प्राप्त कर इस संसार से सदा के लिए मुक्त हो प्रति समता का अद्भुत आदर्श प्रस्तुत करते हैं। जाता है। परोपदेश की अपेक्षा स्वयं आचरण के लिए इसमें इस प्रकार यह मानव संस्कृति अपने निर्मल विशेष जोर दिया गया है, इसके अनुसार प्रत्येक प्रवाह से प्राणिमात्र को कल्याण का मार्ग बतलाते चेतनाधारी जीव को अपनी चेतनता के विकास का हुए अजस्ररूप से भारत की भूमि को पावन करते पूर्ण अधिकार है / कोई भी प्राणी किसी एक ईश्वर हुए प्रवाहित हो रही है। -भारतीय चिकित्सा केन्द्रीय परिषद् १ई/६ स्वामी रामतीर्थ नगर नई दिल्ली-११००५५ 286 चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम o साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Sucation International 7 GPrivate & Personal use only www.jairietierary.org