Book Title: Mahavir ke Samsamayik Shraman Dharmnayak evam unke Siddhant
Author(s): Sohanraj Kothari
Publisher: Z_Mohanlal_Banthiya_Smruti_Granth_012059.pdf

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Page 5
________________ में इस संबंध में प्राप्त विवेचन का यह संक्षिप्त सार है । प्रकुध कात्यायन ने जिन सात तत्त्वो की सत्ता स्वीकार की उनमे चार वे ही है जिन्हें अजितकेशकवली मानता था । सुख, दुःख तथा जीव (चैतन्य)- ये तीन तत्त्व प्रकुधकात्यायन ने अधिक माने। जीव या चैतन्य को, जो परोक्ष है, इन्द्रियातीत है, स्वीकार करने से सिद्ध होता है कि प्रकुध कात्यायन नितांत भौतिकवादी नही था । अध्यात्म की और भी उसका रुझान था । ( ४ ) अजित केशकंबल एवं उसका सिद्धांत उच्छेदवाद 'बौद्ध दर्शन मीमांसा' पुस्तक के पृष्ठ सं० २६ मे दीर्घनिकाय के आधार पर उच्छेदवाद सिद्धांत का सार संक्षेप निम्नलिखित प्रकार से उल्लिखित है - 'न दान है, न यज्ञ है, न होम है, न पुण्य पाप का अच्छा बुरा फल होता है। न माता है, न पिता है, न अयोनिज सत्त्व (देवता) है और न इस लोक में ज्ञानी और समर्थ ब्राह्मण श्रमण है, जो इस लोक और परलोक को जानकर तथा साक्षात्कार कर कुछ कहेंगे। मनुष्य चार महाभूतों से मिल कर बना है और जब मरता है तब पृथ्वी महापृथ्वी में लीन हो जाती है, जल-तेज- वायु - उनमें समाहित हो जाते है और इन्द्रियां आकाश में लीन हो जाती हैं। मनुष्य लोग लाश को सीढी में डालकर ले जाते हैं । उसकी निंदा प्रशंसा करते हैं । हड्डियां कबूतर की तरह उजली होकर बिखर जाती हैं और सब कुछ भस्म हो जाता है । मूर्ख लोग, जो दान देते हैं, उसका कुछ भी फल नहीं होता । आस्तिकवाद ( आत्मा की सत्ता मानना) झूठा है । मूर्ख और पंडित - सभी शरीर के नष्ट होते ही उच्छेद को प्राप्त हो जाते है। मरने के बाद कोई नहीं रहता । ' T दर्शन-दिग्दर्शन उपर्युक्त विचारों के परिशीलन से प्रतीत होता है कि यह चावीक के भौतिकवाद का ही एक रूप था । उसके उपदेष्टा आचार्य अजितकेशकंबली माने जाते है जो चार्वाक मत का उदभावक धर्म नायक एवं प्रभावक आचार्य था। अजितकेशकम्वली का कोई इतिहास नहीं मिलता। उसके नामसे यह संभावना बनती है कि उसका नाम अजित रहा हो और सुविधा त्याग कर वह केशों से बुना रूक्ष अकोमल-सात्विक कम्वल धारण करता हो अतः उसकी विशिष्ट पहचान के लिए उसे अजितकेशकंवल कहा जाता हों। भारतीय संस्कृति की यह विशेषता है कि उसमे विचार स्वातन्त्र्य इतना व्यापक था कि उच्छेदवाद या चार्वाक मत को भी सिद्धान्त एवं दर्शन के रूप में चर्चित किया गया और उसके उपदेष्टा के विचारों को समादर दिया गया। Jain Education International 2010_03 २७३८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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